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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन
सकता, क्योंकि व्यावहारिक कर्तव्यों का सम्पूर्ण उच्छेद कर देना उसके लिए संभव नहीं है । तप का अर्थ ही होता है कर्ममल या संचित कर्म को जलाना या नष्ट करना तथा ऐसी साधना के लिए सर्वांशतः तपस्वी अथवा साधक ही उपयुक्त ठहरते हैं ।
अतः तप का उद्देश्य कर्मों को क्षीण करना अथवा नष्ट करना है तथा आत्मतत्त्व की पहचान भी है। वैदिक, बौद्ध एवं जैन तीनों परम्पराओं में तप का विस्तृत वर्णन मिलता है । यहाँ संक्षेप में तप का विवेचन प्रस्तुत है ।
वैदिक परम्परा में तप
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वैदिक वाङ्मय में तप का उल्लेख कई स्थलों पर हुआ है । प्राचीन ऋषि परम्परा तप पर ही विशेष जोर देती है । यही कारण है कि 'तपस्या से ही ऋत और सत् ' उत्पन्न हुए हैं' तथा 'आत्मा को तप से तेजस्वी करने जैसे विधान मिलते हैं । यह ठीक है कि वैदिक धर्म में यज्ञ का प्रचलन विशेष रूप से रहा है, लेकिन परिस्थिति के अनुसार वह ज्ञान तप में परिवर्तित हो गया । तप प्रथमतः देहदमन के लिए आवश्यक माना जाता रहा, परन्तु जैसे-जैसे आध्यात्मिकता की ओर प्रवृत्ति होने लगी वैसे-वैसे देहदमन के साथ ही साथ इंद्रिय दमन के अर्थ में भी तप प्रयोजनीय समझा जाने लगा । यही कारण है कि उपनिषद्काल में 'तप के द्वारा ही ब्रह्म प्रबुद्ध होता है' ४ तथा कहा गया कि ऋत तप है, सत्य तप है, श्रुत तप है, शांति तप है और दान तप है ।" तपस्वी के लिए तप के साथ श्रद्धा युक्त होना भी आवश्यक है । '
श्रीमद्भगवद्गीता में तप के तीन प्रकार बतलाये गये हैं- दैहिक, वाचिक, तथा मानसिक । दैहिक तप के अन्तर्गत पवित्रता, सरलता
१. ऋतं च सत्यं चामीद्धात्तपसोऽध्यजायत् । - ऋग्वेद, १०1१९०।१ २. अजो भागस्तपसा तं तपस्व ।— - वही, १०।१६।४
३. तपसा ब्रह्मविजिज्ञासस्व । तपो ब्रह्म ेति । - तैत्तिरीय आरण्यक, ९१२ ४. तपसा चीयते ब्रह्म' 1 - मुण्डकोपनिषद्, १1१1८
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५. तैत्तिरीय आरण्यक ( नारायणोपनिषद् ), १०1८ ६. तपः श्रद्धे ये 'ह्यु पवसन्ति । - मुण्डकोपनिषद् १।२1११
७. भगवद्गीता, १७।१४-१६
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