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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन पति हैं, जिन्होंने अंतरिक्ष, स्वर्ग और पृथ्वी सबको धारण किया। उन प्रजापति देव का हम हव्यद्वारा पूजन करते हैं।' इस कथन से ज्ञात होता है कि सृष्टि-क्रम में सर्वप्रथम हिरण्यगर्भ उत्पन्न हुए और यह प्राचीनतम पुरुष योगशास्त्र के प्रथम वक्ता हैं, अतः यह योगशास्त्र भी प्राचीनतम है।
इस तरह वेदों में योग का निरूपण भले ही पारिभाषिक शब्दों में क्रम से न हुआ हो, परन्तु उसमें मन्त्रवाक्यों, प्राकृतिक वस्तुओं तथा अन्य प्रतीकों के आधार पर योग का जो वर्णन हुआ है, वह स्पष्ट ही योगाभ्यास का दर्शक है। उपनिषदों में योग
औपनिषदिक काल योगसाधना की अच्छी भूमि रही है, क्योंकि वेदों में अंकुरित योग के बीज का विकास एवं पल्लवन इस काल में पर्याप्त हआ है। वेद-काल में अध्यात्मवाद उन्मख हआ, उसका सर्वांगीण संवर्धन उपनिषद्-काल में ही हुआ है। इक्कीस उपनिषदों में योग की पर्याप्त चर्चा उपलब्ध है। श्वेताश्वतर में योग का स्पष्ट एवं विस्तृत विवेचन है। इसके दूसरे अध्याय में, विशिष्टता के साथ, योग की साधना, उसका परिणाम आदि के बारे में स्पष्टतया वर्णन है, जो योगदर्शन के रूप में एक नया ही सन्दर्भ प्रस्तुतः करता है। इसमें षडंगयोग का वर्णन करते हुए निर्देशित किया गया है कि शरीर को तिरुन्नत अर्थात् छाती, गर्दन और सिर को उन्नत करके हृदय में, मन में, इन्द्रियों को रोककर ब्रह्मरूप नौका से विद्वान् लोग इस भयानक प्रवाह को पार करें, तथा प्राणों को रोककर मुक्त हों और उनके क्षीण होने पर नासिका से श्वास लें। इस प्रकार इन दुष्ट घोड़ों की मनरूपी लगाम को
१. हिरण्यगर्भः समवर्तताग्ने भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् । स दाधार पृथिवीं चामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥
-ऋग्वेद, १०।१२११ 2. The Constructive Survey of the Upanishadic Philosophy,,
p. 338
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