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भारतीय परम्परा में योग विद्वान् लोग अप्रमत्त होकर धारण करें।' इस प्रकार की साधना करने के बाद ही ध्यानरूप मन्थन से अत्यन्त गूढ़ आत्मा का दर्शन करने का उपदेश दिया है।
इस योग के संदर्भ में पंचकोशों के साथ जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं का भी विशद विवेचन किया गया है। इनमें अन्नमयकोश स्थूल शरीर की अवस्था है तथा जाग्रत अवस्था के अनुरूप है। प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय कोश सूक्ष्मशरीर तथा स्वप्नावस्था को निर्देशित करते हैं । आनन्दमयकोश कारण-शरीर है और सुषुप्ति अवस्था का संकेत करते हैं । सुषुप्ति अवस्था में जीव-ब्रह्म का अस्थायी संयोग होता है और जाग्रत अवस्था आते ही पुनः जीव अपनी वासनाओं के अनुसार कार्यों ने लग जाता है । यहाँ ब्रह्म को ही आत्मा की सत्ता माना गया है, जो चेतन सत्ता है।
उपनिषदों में प्रयुक्त 'योग' शब्द आध्यात्मिक अर्थ को संवलित करता है, क्योंकि योग, ध्यान, तप आदि शब्द समाधि के अर्थ में ही प्रयुक्त हुए हैं। आध्यात्मिक अर्थ में प्रयुक्त करने के कारण योग को मोक्ष-प्राप्ति का हेतू माना गया है, क्योंकि बताया गया है कि योग से ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति होती है तथा ब्रह्मज्ञानी परमात्मा को जानता है १. त्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरं । हृदीन्द्रियाणि मनसा संनिरुध्य ।
ब्रह्मोडुपेन प्रतरेत विद्वान्, स्रोतांसि सर्वाणि भयावहानि ॥ प्राणान् प्रपीड्येह संयुक्तचेष्टः क्षीणे प्राणे नासिकयोच्छ्वासीत् । दुष्टाश्वयुक्तमिव वाहमेनं विद्वान् मनो धारयेताप्रमत्तः ॥
-श्वेताश्वतर उपनिषद्, २।८-९ २. ध्याननिर्मथनाभ्यासाद् देवं पश्येन्निगूढवत् । -वही, १।१४ ३. तैत्तिरीयोपनिषद्, २५१-६ ४. तैत्तिरीयोपनिषद्, २१४; छान्दोग्योपनिषद्, ७।६।१,
श्वेताश्वतर उपनिषद्, २।११।६ . ५. तं दुर्दशं गूढ मनुप्रविष्ट, गुहाहितं गह्वरेष्ठं पुराणम् । अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं, मत्वा धीरो हर्षशोको जहाति ।।
-कठोपनिषद्, १।२।१२ ६. (क) एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति ।- वही, २०६
(ख) ब्रह्मविदाप्नोति परम् । -तैत्तिरीयोपनिषद् २।१।१
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