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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन और जो परमात्मा को जानता है वह इस संसार से मुक्त हो जाता है। 'षडंगयोग के प्रत्याहार, ध्यान, प्राणायाम, धारणा, तर्क और समाधि के वर्णन में कहा गया है कि विषयासक्त मन बन्धन में फंसाता है तथा निर्विषय मन मुक्ति दिलाता है। इसलिए विषयासक्ति से मुक्त और हृदय में निरुद्ध मन जब अपने ही अभाव को प्राप्त होता है तब वह परमपद पाता है।
इस परमगति को प्राप्ति के लिए आचार-विचार अपेक्षित है; जैसे श्रद्धा, तप, ब्रह्मचर्य, सत्य, दान, दया आदि; और इनकी महती आवश्यकता का उल्लेख विभिन्न उपनिषदों में हुआ है। लेकिन आचारनीति का पालन करने मात्र से ही मोक्ष-प्राप्ति असम्भव है; उसके लिए ज्ञान तथा योग का समन्वय अपना प्रमुख स्थान रखता है। मोक्ष-प्राप्ति के लिए तप एवं समाधि की अनिवार्यता बतायी गयी है, जो योग के ही अंग हैं । योग अथवा समाधि अवस्था में वाणी एवं मन निवृत्त हो जाते हैं, साधक निर्भीक बनता है और ब्रह्मानन्द का आस्वादन करता है।" ब्रह्मानन्द की प्राप्ति के बाद वह जन्म-मरण के बन्धन से सर्वथा मुक्त हो जाता है। १. तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ।
-श्वेताश्वतर उपनिषद्, ३३८ २. प्रत्याहारस्तथा ध्यानं प्राणायामोऽथ धारणा।
तर्कश्चैव समाधिश्च षडंगो योग उच्यते ।।-अमृतनादोपनिषद्, ६ ३. निरस्तविषयासंगा सन्निरुद्धं मनोहृदि ।
यदा यात्युन्मनीऽभाव तदा तत्परम् पदम् ॥-ब्रह्मबिन्दूपनिषद्, ४ अथोत्तरेण तपसा ब्रह्मचर्येण श्रद्धया विद्ययात्मानमन्विष्यादित्यमभिजयन्ते।
-प्रश्नोपनिषद्, १।१० सत्यमेव जयते नानुतम् । -मुण्डकोपनिषद्, ३३१६ तदेतत् त्रयं शिक्षेमं दानं दयामिति ।-बृहदारण्यकोपनिषद्, ५।२।३,
यज्ञेन दानेन तपसा लोकाञ्जयन्ति ते धूममभिसंभवन्ति ।-वही, ६।२।१६ ५. यतो बाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह ।
आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् न विभेति कुतश्चनेति ॥-तैत्तिरीयोपनिषद्, ३१९ ६. तेषु ब्रह्मलोकेषु पराः .. परावतः .. वसन्ति तेषां ""न पुनरावृत्तिः ।
-बृहदारण्यकोपनिषद्, ६।२।१५
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