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भारतीय परम्परा में योग __ योग के दो प्रकारों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि विहित कर्मो में, इस बुद्धि का होना कि यह कर्तव्य कर्म है, मन का ऐसा नित्य बन्धन ही कर्मयोग है तथा चित्त का सतत श्रेयार्थ में रहना ज्ञानयोग है। इस तरह योग के दो भेद किये हैं। योग के चार भेद भी उल्लिखित हैं-मंत्रयोग, लययोग, राजयोग और हठयोग ।। इन चारों को महायोग कहा है, जिनमें आसन, प्राणायाम, ध्यान तथा समाधि का विधान है।
इस प्रकार उपनिषदों में योगविषयक बिखरी हुई सामग्री के प्रकाश में यह तो कहा ही जा सकता है कि औपनिषदिक योग आध्यात्मिक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है तथा आत्मा को पहचानने के लिए यह एक साधनभूत अर्थ में प्रसिद्ध रहा है। महाभारत में योग
महाभारत भारतीय संस्कृति का अनमोल ग्रन्थ-रत्न है, जिसमें आचार-मीमांसा, नीति, कर्म आदि के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के दैनिक कर्तव्यों का निर्देश है। इसी क्रम में कई स्थलों पर योग का निरूपण किया गया है। बताया गया है कि सर्वप्रथम इन्द्रियों को जीतना चाहिए, क्योंकि वे ही चंचल, अस्थिर तथा अनेक प्रकार के कषायों की जड़ हैं। इसमें अन्य धर्मों की तरह साधक योगी को अहिंसा १. कर्म कर्तव्यमित्येव विहितेष्वेव कर्मसु ।
वन्धनं मनसो नित्यम् कर्मयोगः स उच्यते । यत चित्तस्य सततमर्थं श्रेयसि बन्धनम् । ज्ञानयोगः स विज्ञेयः सर्वसिद्धिकरः शिवः । यस्योक्तलक्षणे योगे द्विविधेऽप्यव्ययं मनः ।
-त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्, २५-२७ २. योगो हि बहुधा ब्रह्मन्भिद्यते व्यवहारतः। __ मंत्रयोगो लयश्चैव हठोऽसौ राजयोगतः ॥-योगतत्त्वोपनिषद्, १९ ३. आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेय्यात्मनो। वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेदं सर्व विदितम् ।
___ -बृहदारण्यकोपनिषद्, २।४।५ ४. महाभारत, अनुशासनपर्व, ९६ । २८-३०
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