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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन का पालन करने को कहा गया है। क्योंकि उसके बगैर समता एवं शान्ति नहीं आ सकती। इसी सन्दर्भ में बताया गया है कि मुनि क्षमाभाव, इंद्रियनिग्रह आदि का सम्यक् पालन करें, जो तप के पर्याय हैं। इस ग्रन्थ में योग की क्रियाओं तथा अभ्यास के कथन भी पद-पद पर विभिन्न शैलियों में प्राप्त होते हैं । इस ग्रन्थ के अनुशासन, शान्ति एवं भीष्म पर्वो में योग की विस्तृत चर्चा है। यहाँ भी पातंजल-योग की तरह योग के दो प्रकार वर्णित हैं-सबीज तथा निर्बीज ।
योग की चर्चा करते हुए मन को सुदृढ़ बनाने, अपनी इन्द्रियों की ओर से उसे समेटने और मनःपूर्वक योगाभ्यास करने का आदेश दिया गया है तथा कभी स्थिर नहीं रहनेवाली अति चंचल इन्द्रियों को वश में करने का उपदेश है। लेकिन ऐसा कर पाना बहुत कठिन है। यही कारण है कि योगी को सम्बोधित करते हए कहा गया है कि वह मन को धीरे-धीरे अभ्यास द्वारा विषयों से विमुख करके चित्त को ध्यान में लगावे ६ तथा संयम और योगाभ्यास करते-करते उसकी चित्तवृत्तियाँ शान्त होंगी तथा वह अपने में सन्तुष्ट होने लगेगा । ऐसा करने से जब उसका मन एकाग्न हो जाय तो उसे चाहिए कि वह रागादि विषयों को छोड़कर ध्यान-योगाभ्यास में सहायक देश, कर्म, अर्थ, उपाय, अपाय, आहार, संहार, मन, दर्शन, अनुराग, निश्चय और चक्षुष इन बारह योगों का आश्रय ले। इस तरह वह सभी दोषों को ध्यान से नष्ट कर पर१. अहिंसा परमो धर्मस्तथा हिंसा परो दमः । ___ अहिंसा परम दानमहिंसा परमं तपः ॥
-महाभारत, अनुशासनपर्व, ११६।२८ २. व्रतोपवासयोगश्च क्षमायेन्द्रियनिग्रहः ।
दिवारानं यथायोगं शौच धर्मस्य चिन्तनम् ।।--वही, १४२।६ ३. स च योगो द्विधा भिन्नी ब्रह्मदेवर्षिसम्मतः।।
समानमुभयत्रापि वृत्तं शास्त्रप्रचोदितम् ।।-वही, १४५ । ११९० ४. वही, १४५ । १२.० ५. शान्तिपर्व, १९५।११ ६. एवमेन्द्रिय ग्रामं शनैः सम्परिभावयेत् ।
संहरेत क्रमश्चैव स सम्यक् प्रशभिष्यति ।-वही, १९५।१९ ७. छिन्न दोषो मुनिर्योगान युक्तोयुजीत द्वादश । देशकर्मानुरागार्थनुपायापाय
निश्चयो । चक्षुराहारसंहारैमनसा दर्शनेन च ।-वही, २२६।५४
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