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भारतीय परम्परा में योग
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मात्मा के स्वरूप में स्थित होने के योग्य बनता है, जहाँ से वह वापस नहीं लौटता ।" इस प्रकार ब्रह्मोपलब्धि के लिए योगमार्ग का निर्देश है जिसमें योग का अर्थ 'जीव और ब्रह्म का संयोग' करते हुए कहा है कि जीव और ब्रह्म में अभेद का ज्ञान प्राप्त करने से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है । साथ ही मोक्ष प्राप्ति के लिए कर्मयोग, भक्तियोग तथा ज्ञानयोग तीनों की उपयुक्तता सिद्ध की गयी है ।
गीता में योग
योग की व्यवस्थित एवं सांगोपांग भूमिका प्रस्तुत करने में श्रीमद्भगवद्गीता का विशिष्ट स्थान है । गीता का प्रत्येक अध्याय 'ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ...........योगो नाम "अध्यायः ' इन शब्दों से समाप्त होता है, जो योग की अनिवार्यता का ही द्योतक है। गीता में विभिन्न योग - पद्धतियों का समन्वय दिखाई पड़ता है, जिनका उद्द ेश्य प्रमुखतः एक ही है । इसमें कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, समत्वयोग, ध्यानयोग आदि के उल्लेख हैं । इनके मुख्य तीन उद्देश्य हैं -- ( १ ) जीवात्मा का साक्षात्कार, ( २ ) विश्वात्मा का साक्षात्कार, तथा ( ३ ) ईश्वर - साक्षात्कार 1 योग-विषयक अनेक विचारों का संग्रह या समन्वय होने के कारण ही जिज्ञासु पाठक तथा विद्वान् अपनी-अपनी दृष्टि और रुचि के अनुसार गीता की व्याख्या करते हैं ।
विभिन्न योगों की चर्चा के साथ-साथ गीता में योग के कुछ सामान्य लक्षणों का भी निर्देश है, जिन्हें योग के तटस्थ या व्यावहारिक लक्षण कहा जा सकता है । व्यावहारिक योग के लक्षण विभिन्न अध्यायों में विभिन्न प्रकार के हैं; जैसे, कर्मफल की इच्छा का न होना, 3 विषयों
१. नावर्तन्ते पुनः पार्थमुक्ता संसारदोषतः जन्मदोष परिक्षीणाः स्वभावेपर्यंवस्थिताः । - वही, १९५३
२. कल्याण, साधनांक, वर्ष १५, अं० १, पृ० ५७५ ३. कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥
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- गीता, २।४७ तथा ४।२०; ५।१२
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