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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन के प्रति अनासक्ति, समत्वयोग,' निष्कामता,३ सुख-दुःख एवं लाभ में समता' आदि।
उक्त सभी अभावात्मक लक्षणों के अतिरिक्त भावात्मक विधान भी हैं; जैसे, सभी कार्य भगवान् को अर्पण करना, सब अवस्थाओं में संतुष्टि मन को भगवान् में एकाग्र रखना आदि। ___ गीता के अनुसार विशेष प्रकार की कर्म करने की कुशलता, युक्ति अथवा चतुराई योग है।' कर्मों के प्रति असंगता की प्राप्ति के लिए अहंकार का नाश आवश्यक हैं, क्योंकि उसकी उपस्थिति से मनुष्य में असंग-भाव, समता, क्षमा, दया आदि योग के लक्षणों का अभाव होता है। क्रोध, काम आदि दुर्वृत्तियां अहंकार से ही उत्पन्न होती हैं और इनके विषय पाँच कर्मेन्द्रियां, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच विषय, पाँच भूत, मन और बुद्धि हैं। इन विषयों की शुद्धि के लिए इन्द्रिय-संयम अत्यावश्यक है, जिससे योग को लब्धि होती है। इस प्रकार योग दुःख से विमुक्त ऐसी अवस्था का नाम है, जिसमें ऊपर से छाये हुए स्थान में रखे दीपक की लौ की भाँति मन प्रकम्पित नहीं होता । जब आत्मा के द्वारा आत्मा का साक्षात्कार होता है, उस समय मनुष्य को पूर्ण सन्तोष मिलता है और परम आनन्द की अनुभूति में वह लीन हो जाता है। उस अवस्था में पहुँचने पर वह विचलित नहीं होता। यही योग मुक्ति की पहचान १. योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजयः । सिद्ध्यसिद्धयोः समोभूत्वा समत्वं योग उच्यते ।
-वही, २।४८ तथा ३३१९ २. यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः।-वही, ४।१९ ३. सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालामी जयाजयो।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥ -वही, २०३८ ४. ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः ।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥ -वही, १२१६ ५. मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ।। -वही, १०९ ६. योगः कर्मसु कौशलम् । -वही, २१५० ७. यत्रोपरमते चित्तं निरुद्ध योगसेवया।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति । -वही, ६।२०
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