________________
योग के साधन : आचार . .
१०९ संयम में वृद्धि होती है, धर्म-व्यापार में मन स्थिर होता है, आन्तरिक दोषों का नाश होता है, समता, मैत्री, भावना आदि शुद्ध भाव पैदा होते हैं। इनके अभ्यास से आत्मविकास होता है।
१. देवसेवा-इसके अन्तर्गत अरहंत प्रभु का अभिषेक, पूजन, गुणों का स्तवन, जप तथा ध्यान की क्रियाएं आती हैं।'
२. गुरुपूजा-इसके अन्तर्गत आचार्य तथा गुरु के प्रति श्रद्धा एवं पूजाभाव, शास्त्रों का मनन-विवेचन, सम्यक आचरण आदि क्रियाएँ आती हैं, जो कल्याणप्रद हैं। इसमें बताया गया है कि माता-पिता, विद्या-गुरु, ज्ञाति कुटुम्ब, श्रुतशील एवं धर्म प्रकाशक गुरु हैं और इनका आदर-सत्कार आदि करना धर्म है। इसी संदर्म में गीता के अनुसार उनकी सेवा करना तथा ज्ञान प्राप्त करना विहित माना गया है।
३. स्वाध्याय-स्वाध्याय का अर्थ है आत्मा का अध्ययन अथवा अध्यात्म का चिन्तवन अर्थात् चारों अनुयोगों का एवं गणस्थान, मार्गणा आदि का सम्यक् पठन-पाठन ।' इससे चित्त स्थिर होता है और आत्मा की ओर देखने की प्रवृत्ति जाग्रत होती है।
४. संयम-कषायों का निग्रह, इन्द्रियजय, मन-वचन-काय की
१. स्नपनं पूजनं स्तोत्रं जपो ध्यानं श्रुतस्तवः । षोढाकियोदिता सद्भिर्देवसेवासु गेहिनाम् ।।
-वही, ४६१९१२, योगशास्त्र, ३११२२-२३ २. आचार्योपासनं श्रद्धा शास्त्रार्थस्य विवेचनम् । तक्रियाणामनुष्ठानं श्रेयःप्राप्तिकरो गणः॥
-वहो, ४६।९१३ ; योगशास्त्र, ३११२४ ३. मातापिताकलाचार्य एतेषां ज्ञातयस्तथा।
वृद्धाधर्मोपदेष्टारो गुरुवर्गः सतां मतः ॥-योगबिन्दु, ११० ४. तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः । भगवद्गीता, ४॥३४ ५. अनुयोगगुणस्थानमार्गणास्थानकर्मसु । अध्यात्मतत्वविद्यायाः पाठः स्वाध्याय उच्यते ॥
-उपासकाध्ययन, ४६।९१५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org