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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन
प्रवृत्ति का त्याग और व्रतों का नियमपूर्वक पालन करना ही संयम है । ' - संयमपालन से ही धर्मपालन में स्थिरता आती है । गीता के अनुसार भी इन्द्रिय, मन, वाणी, विचार, रसेन्द्रिय, काम, क्रोध आदि पर अंकुश रखना -संयम है ।
५. तप - इसके सम्बन्ध में विस्तार के साथ अगले अध्याय में प्रकाश डाला गया है ।
६. दान - श्रावक के लिए आवश्यक माना गया है कि वह पात्र, आगम, विधि, द्रव्य, देश और काल के अनुसार अपनी शक्ति एवं मर्यादाओं को ध्यान में रखकर दान करे । 3 दान देने में राग-द्वेष, कीर्ति की लालसा आदि मनोभावों को न आने दे |
इस प्रकार ये षट्कर्म या आवश्यक श्रावक के दैनिक कर्तव्य हैं । आदिपुराण में पूजा, वार्ता, दान, स्वाध्याय, संयम एवं तप को 'कुलधर्म' कहा गया है । "
( २ ) श्रमणाचार ( साध्वाचार )
साध्वाचार अथवा श्रमणाचार जैन संस्कृति का मूल आधार है - तथा संयममय योगपूर्ण जीवन का मूल मंत्र है । यही कारण है कि साधु या मुनि योग के सम्पूर्ण स्तरों का सम्यक् रूप से पालन करने में समर्थ होता है । योग के लिए किन-किन नियमों, उपक्रमों आदि की अपेक्षाएँ होती हैं वे अनायास ही अभ्यास क्रम में प्राप्त हो जाती हैं। योग-सिद्धि के लिए श्रमणचर्या सहायक है । अतः उसका उपयुक्त एवं समीचीन विश्लेषण यहाँ किया जाता है ।
१. कषायेन्द्रियदण्डानां विजयो व्रतपालनम् ।
संयम संयतैः प्रोक्तः श्रेयः श्रयितुमिच्छताम् ॥ - वही, ४६।९२४
२. त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत् त्रयं त्यजेत् ।। - भगवद्गीता, १६।२१
३. पात्रागमविधिद्रव्य- देश - कालानतिक्रमात् ।
दानं देयं गृहस्थेन, तपश्चयं च शक्तितः ॥ - सागारधर्मामृत, २१४८ ४. आदिपुराण, २४ २५
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