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योग के साधन : आचार
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श्रावक अथवा गृहस्थ के अणुव्रत आदि व्रत-शील साधक को साधुत्व की ओर प्रेरित करते हैं और दीक्षा लेने के उपरांत साधु संसार सम्बन्धी ममता-मोह तथा राग-द्वेष से ऊपर उठकर समभाव में स्थित होते हैं । साधु-सामाचारी के सम्बन्ध में कहा गया है कि गुरु के समीप रहना, विनय करना, निवासस्थान की शुद्धि रखना, गुरु के कार्यो में शांतिपूर्वक सहयोग देना, गुरु-आज्ञा को निभाना, त्याग में निर्दोषता, भिक्षावत्ति से रहना, आगम का स्वाध्याय करना एवं मृत्यु आदि का सामना करना आवश्यक है।' सामाचारी का तात्पर्य ही यह है कि विवेकपूर्वक संयम-चारित्र का पालन करना । उत्तराध्ययनसूत्र में भी कहा है कि विनय की शिक्षा का स्रोत यही है। साधु या निग्रन्थ हिंसा आदि का पूर्णतः त्यागी होता है। उसके अहिंसादिवत महाव्रत कहलाते हैं। पहले कहा ही गया है कि श्रावक देशव्रती होता है और श्रमण सर्वदेशव्रती या सकल चारित्र का पालनकर्ता। साधु के अट्ठाईस मूलगुण और सत्तर उत्तरगुण" कहे गये हैं, जिनका पूरी तरह पालन करना प्रत्येक श्रमण के लिए नितान्त आवश्यक है । इन मूलगुणों एवं उत्तरगुणों में श्रमण की चर्या समाहित हो जाती है, फिर भी क्रमशः पंचमहाव्रतों, त्रिगुप्तियों, पंचसमितियों आदि का वर्णन यहाँ कर देना उपयुक्त होगा।
१. योगशतक, ३३-३५ २. वही, पृ० ४६ ३. सामाचारी का सामान्य अर्थ है सम्यक्चर्या या सम्यक् आचरण । यह सब
दुःखों से मुक्त करानेवाली है। इसके दस अंग हैं-आवश्यकी, नैषेधिकी, आपृच्छना, प्रतिपृच्छना, छन्दना, इच्छाकार, मिथ्याकार, तथाकार, अभ्युत्थान, उपसंपदा । -उत्तराध्ययन, २६।१-७ ४. महाव्रत-समित्यक्षरोधाः स्युः पंचचैकशः।
परमावश्यकं षोढा, लोचोऽस्नानमचेलता ॥, अदन्तधावनं भूमिशयनं स्थिति-भोजनम् ।
एकभक्तं च सन्त्येते पाल्या मूलगुणा यते ॥-योगसारप्राभृत, ८॥६-७ ५. पिंडविसोही समिई भावण पडिमा य इन्दियनिरोहो। पडिलेहण गुत्तीओ अभिग्गहा चैवकरणं तु ॥
-ओपनियुक्तिभाष्य, पृ०६
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