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________________ ११२ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन पंचमहाव्रत श्रमण के पांच महाव्रत इस प्रकार हैं' - (१) सर्वप्राणातिपातविरमण ( अहिंसाव्रत ) यह प्रथम महाव्रत है | श्रमण को अहिंसा का सम्पूर्णतया पालन तीन योग एवं तीन करण से करना होता है । अहिंसा महाव्रत की पाँच भावनाएँ हैं - ( १ ) ईर्यासमिति - साधु उठने-बैठने, गमनागमन करने आदि में अत्यन्त सावधानी बरते ताकि किसी भी जीव की विराधना न हो । (२) मन की अपापकता - मन में अनेक प्रकार के विचार आते हैं । वे सावकारी, आस्रव करनेवाले, सक्रिय, छेदन-भेदन एवं कलह करनेवाले, दोषपूर्ण एवं प्राणों के घातक हो सकते हैं, जिन्हें मन से हटाना साधु के लिए अनिवार्य है । (३) वचनशुद्धि - वाणी के समस्त दोषों से बचना चाहिए ।" अर्थात् साधु को ऐसे वचनों का प्रयोग करना चाहिए, जिनसे दूसरे जीवों को पीड़ा अथवा तकलीफ न हो और न किसी भी प्रकार के दोष उत्पन्न हों । ( ४ ) भण्डोपकरणसमिति - साधु को पात्रादि उपकरणों के रखने आदि में सावधानी रखनी चाहिए, क्योंकि इनसे अनेक प्रकार की हिंसा होना संभव है । ५ (५) आलोकितपानभोजन — विवेकपूर्वक आहारचर्या की जाय ताकि किसी प्रकार की हिंसा न हो । आहार- पानी की असावधानता से छोटे-मोटे जीवों की हिंसा सम्भव है, इसलिए हिंसा आदि दोषों से युक्त आहार का निषेध है । साधु को शुद्ध, निर्दोष आहार ही लेना विहित है । " १. अहिंस सच्चं च अतेणगं च ततो य बंभं अपरिग्गहं च । पडिवज्जिया पंचमहन्वयाणि, चरिज्जधम्मं जिणदेसियं विऊ || - उत्तराध्ययन, २१।१२ २. तंत्थिमा पढमा भावना इरियासमिए से निग्गंथे. अणहरिया समिइत्ति पढमा भावना । — आचारांगसूत्र, द्वितीय श्रुत० अ० १५ पृ० १४२० ३. वही, पृ० १४२२ ४. वही, पृ० १४२३ ५. आचारांगसूत्र, हि० श्रुत०, अ० १५, पृ० १४२४ ६. वही, पृ० १४२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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