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________________ योग के साधन : आचार ११३ (२) सर्वमृषावादविरमण' ( सत्यव्रत) ___ यह द्वितीय सत्य महाव्रत है। साधु को अहिंसा की भांति ही सत्यमहाव्रत का पालन तीन योग तथा तीन करण से करना होता है। इस महाव्रत की पाँच भावनाएं हैं (१) अनुवोचिभाषण-विवेक-विचारपूर्वक बोलना। (२) क्रोघत्याग-साधु को क्रोध या आवेश से बचना चाहिए । (३) लोभत्याग-साधु को लोभ से सर्वथा दूर रहना चाहिए, जिससे कि मिथ्याभाषण का दोष न लगे। (४) भयत्याग-साधु को हर प्रकार के भय से सर्वथा अलग रहना चाहिए। (५) हास्यत्याग-हँसी-मजाक भी असत्य का कारण है। इसलिए साधु को इससे दूर रहना चाहिए। (३) सर्वअदत्तादानविरमण (अस्तेय व्रत ) यह तृतीय अचौर्य महाव्रत है। बिना अनुमति से साधु को एक तिनका भी ग्रहण करना वर्जित है । साधु को तीन योग तथा तीन करण से अचौर्य महाव्रत का पालन करना होता है । इस महाव्रत की भी पांच भावनाएं हैं (१) विचारपूर्वक वस्तु या स्थान की याचना-साधु को सोचसमझकर ही उपयोग के लिए वस्तु या स्थान के स्वामी या श्रावक से याचना करनी चाहिए। (२) गुरु की आज्ञा से भोजन-विधिपूर्वक अन्नपानादि लाने के बाद गुरु को दिखाकर उनकी अनुज्ञापूर्वक उपभोग करना चाहिए। (३) परिमित पदार्थ ग्रहण-साधु को स्थान, उपकरण, आहार आदि के ग्रहण में परिमितता अर्थात् मर्यादा का ध्यान रखना चाहिए। (४) पुनः पुनः पदार्थों की मर्यादा-साधु को बार बार अवग्रह की मर्यादा निर्धारित करनी चाहिए। १. वही, पृ० १४३०-३१ २. वही, पृ० १४३७-३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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