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________________ ११४ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन (५) साधर्मिक अवग्रहयाचन--साधु अपने समानधर्मी दूसरे साधु से आवश्यक होने पर परिमित स्थान की याचना करे । ___ इस प्रकार साधु को विवेकपूर्वक स्थान या वस्तु ग्रहण करना चाहिए। (४) सर्वमैथुनविरमण (ब्रह्मचर्यव्रत) यह चतुर्थ ब्रह्मचर्य महावत है। अन्य महाव्रतों की भांति ही इस महाव्रत का पालन साधु को मन-वचन-काय एवं कृत-कारित-अनुमोदना पूर्वक करना होता है । इस महाव्रत की भी पाँच भावनाएं हैं-- (१) स्त्रीकथात्याग--साधु को कामवर्धक स्त्रीकथा या बातें नहीं . करना चाहिए। (२) मनोहर क्रियावलोकनत्याग--महाव्रती को अपने से विजातीय व्यक्ति के मुख, स्तन, दण्ड, बाल आदि कामोद्दीपक अंगों का अवलोकन करना वजित है। (३) पूर्वरतिविलासस्मरणत्याग-साधु को चाहिए कि वह ब्रह्मचर्यव्रत स्वीकार करने के पूर्व के काम-भोगों का स्मरण न करे। (४) प्रणीतरसभोजनत्याग-प्रमाण से अधिक अथवा कामवर्धक रसयुक्त आहारपानी ग्रहण नहीं करना चाहिए। (५) शयनासन-त्याग--स्त्री, पशु, नपुसक आदि के आसन अथवा शैया आदि का उपयोग करना साधु को विहित नहीं है ।' . ___ इस तरह सभी प्रकार से मन, वचन एवं काय द्वारा मैथुन-भावनादि की निवृत्ति ही ब्रह्मचर्य है और उसका सम्पूर्णतया पालन करना किसी भी योगी के लिए नितान्त आवश्यक है। (५) सर्वपरिग्रहविरमण (अपरिग्रहवत) ____ यह पाँचवाँ अपरिग्रह महाव्रत है । साधु को सब प्रकार के अन्त रङ्ग एवं बाह्य परिग्रह से मुक्त रहना चाहिए। परिग्रहों से मन कलुषित होता है, अशांति, भय, तृष्णा, बढ़ती है और मन एकाग्र नहीं हो पाता। परिग्रह अर्थात् मूर्छा के कारण अहिंसादि महाव्रतों का पालन १. वही, पृ० १४४५-४६ २. वही, पृ० १४०५-५७ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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