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-योग के साधन : आचार
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भी नहीं हो पाता । इस महाव्रत को भी पाँच भावनाएँ हैं, जो पाँच इंद्रियों के विषयों से सम्बन्धित हैं-
(१) श्रोतेन्द्रिय में अनासक्ति -- साधु प्रिय अप्रिय, कोमल-कठोर शब्दों के प्रति राग-द्वेष नहीं रखे ।
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(२) चक्षरिन्द्रियों में अनासक्ति -- साधु को प्रिय अप्रिय रूपों के अव-लोकन के प्रति उदासीन रहना चाहिए ।
(३) प्राणेन्द्रिय में अनासक्ति -- साधु सुगन्ध अथवा दुर्गन्ध के प्रति उदासीन रहे ।
(४) रसनेन्द्रिय में अनासक्ति -- साधु को प्रिय अथवा अप्रिय वस्तु के स्वाद में, रस में आसक्ति नहीं रखनी चाहिए ।
(५) स्पर्शेन्द्रिय में अनासक्ति -- प्रिय स्पर्श में राग और अप्रिय में द्वेष उत्पन्न होता है और ऐसा रागद्वेष रखने से शान्ति भङ्ग होती है । अतः साधु को हर प्रकार के स्पर्श के प्रति उदासीन रहना चाहिए ।
अपरिग्रह महाव्रत के धारी साधु या योगी को संसार के प्रति सारी आसक्ति का त्याग कर देने का विधान है । अपरिग्रही साधु हो सही अर्थ में योगी होता है ।
गुप्तियाँ एवं समितियाँ (अष्ट प्रवचनमाता )
मानसिक एकाग्रता एवं विशुद्धि के लिए अशुभ प्रवृत्तियों का शमन और शुभ प्रवृत्तियों का आचरण आवश्यक है । मन की विशुद्धता एवं एकाग्रता श्रमण के महाव्रतों की रक्षा एवं पोषण करती है और आत्मिक विकास अर्थात् योग द्वारा मोक्ष की स्थिति तक पहुँचाने में सहायक है । इसके लिए गुप्तियों और समितियों का विधान है, क्योंकि गुप्तियाँ मन, वचन एवं काय की अशुभ प्रवृत्तियों को रोकती हैं, और समितियाँ चारित्र की प्रवृत्ति के लिए हैं । वस्तुतः गुप्ति एवं समिति से एकाग्रता प्राप्त होतो है तथा शुभ प्रवृत्तियों की ओर उन्मुख होने का अभ्यास प्रबल बनता है । इन दोनों का संयुक्त नाम अष्ट प्रवचनमाता है । "
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१. एयाओ पंच समिईओ, चरणस्स य पवत्तणे ।
गुत्ती नियत्तणे वृत्ता असुभत्येसु सव्वसो ॥ - उत्तराध्ययन, २४।२६
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२. एताश्चारित्रगात्रस्य, जननात्परिपालनात् ।
संशोधनाच्च साधूनां मातरोऽष्टौ प्रकीत्तिताः ॥
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- योगशास्त्र, ११४५; उत्तराध्ययन, २४|१
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