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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन ... यम की अपेक्षा से इस योगी के भी चार विभेद किये गये हैं१. इच्छायम, २. प्रवृत्तियम, ३. स्थिरयम और ४. सिद्धियम । यहाँ यम शब्द का व्यवहार अहिंसा, सत्य आदि के वाचक के रूप में हुआ है। अतः इन पाँचों व्रतों का निष्ठापूर्वक पालन करनेवाला, योग-कथा में अभिरुचि रखनेवाला तथा योगकथाओं द्वारा अपने मन को स्थिर करनेवाला योगी इच्छायम कहलाता है । उपशमादि भावों को धारण करके जो योगी यमादि व्रतों का पालन करता है, वह प्रवृत्तियम है । क्षयोपशमभाव से अतिचारों को चिन्ता न करके, दृढ़ भावना से यमों का पालन करनेवाला योगी स्थिरयम कहलाता है और जिसको अन्तरात्मा विशद्ध होकर परमार्थपद की प्राप्ति के लायक होती है, वह सिद्धियम योगी कहा जाता है ।
इस प्रकार प्रवृत्तचक्रयोगी अपनी आत्मोन्नति के लिए अनेक प्रकार के चारित्र का पालन करता हुआ, राग-द्वेषादि से रहित होता है तथा आत्मगणों को वृद्धि के क्रम में तीन प्रकार के अवंचक्रों को पूरा करता है। अवंचक्र के प्रकार
अवंचक्र तीन प्रकार के हैं-१. योगावंचक्र, २. क्रियावंचक्र तथा ३. फलावंचक्र | जिनके दर्शन से कल्याण एवं पुण्य की प्राप्ति होती है, ऐसे सद्गुरुओं का सत्संग ही योगावंचक्र है । पापक्षय के लिए सद्गुरुओं की प्राप्ति के बाद उनकी पूजा-सत्कार करना क्रियावंचक्र है। गुरु के उपदेशानुसार सम्यक्रूप से यमनियमादि का पालन करते हुए धर्म की सिद्धि को प्राप्त होकर उत्तम योग के फलों को पाना फलावंचक्र कहलाता है।
इस प्रकार योग-प्राप्ति की ओर उन्मुख साधक अब योगावंचक्र
१. यमाश्चतुर्विधा इच्छाप्रवृत्तिस्थैर्य सिद्धयः । -योगभेदद्वात्रिंशिका, २५ २. योगदृष्टिसमुच्चय, २१३-१६ ३. योगक्रियाफलास्यं यच्छयते वंचक्रत्रयम् ।
साधूनाश्रित्य परम भिषुलक्ष्यक्रियोपमम् । -वही, ३४ ४. वही, २१७-१८
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