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जैन योग का स्वरूव अपरनाम अयोग-अवस्था अथवा सर्वसंन्यासयोग अवस्था है, क्योंकि इस अवस्था में योगी की आत्मा मुक्ति के साथ सम्बन्ध स्थापित करती है । इस अवस्था को प्राप्त करना ही सर्वोत्तम योग माना गया है।' अधिकारियों की अपेक्षा से योगी के प्रकार
यद्यपि योगी के प्रकारों के सम्बन्ध में प्रकाश डाला जा चुका है, तथापि यहाँ अधिकारी की अपेक्षा से योगी के प्रकारों पर दृष्टिपात कर लेना उचित है। अधिकारी की दृष्टि से योगी के प्रमुख चार प्रकार हैं१. कुलयोगी, २. गोत्रयोगी, ३. प्रवृतचक्रयोगी तथा ४. निष्पन्नयोगी।
कुलयोगी-जो योगी योगसाधना में लीन रहकर यथाविधि धार्मिक अनुष्ठानों का पालन करता है और किसी प्रकार का आलस नहीं करता, उसे कुलयोगी कहते हैं। कुलयोगी का अधिकारी कोई भी सामान्य जन हो सकता है, क्योंकि वह इच्छानुसार धर्म में प्रवृत्त रहते हुए भी अन्य जीवों के प्रति राग-द्वेष नहीं रखता, देवगुरु के प्रति श्रद्धा रखता है, ब्रह्मचर्य में रत रहता है, ब्राह्मणों का प्रिय होता है, इन्द्रियों को वश में रखता है तथा विवेकी, विनम्र और दयालु होता है ।२
गोत्रयोगी-साधक के गोत्र में जन्म लेनेवाले योगी को गोत्रयोगी कहते हैं। इस योगी का आचार-विचार कूलयोगी के विपरीत होता है। वह यम-नियमादि का पालन करनेवाला नहीं होता है, क्योंकि उसकी प्रवृत्ति संसाराभिमुख होती है। अतः ऐसे व्यक्ति को योग के लिए अनधिकारी माना गया है। __ प्रवृत्तचक्रयोगी-यह योगी क्रमशः अपनी मोक्षाभिलाषा को बढ़ाने वाला, सेवाशुश्रूषा अर्थात् दया, प्रेम, शील, ज्ञान आदि में यत्नपूर्वक प्रवृत्ति करनेवाला होता है। यह भी योगाधिकारी होता है।
१. अतस्त्वयोगो योगानां योगः पुरमुदाहृतः । मोक्षयोजन भावेन सर्वसंन्यास लक्षणः ।।
-वही, ११; तथा अध्यात्मतत्त्वालोक, ७।१२ २. योगदृष्टिसमुच्चय, २०८-९ ३. प्रवृत्तचक्रास्तु पुनर्यम द्वयसमाश्रयाः ।।
शेषद्वयार्थिनोऽत्यन्तं शुश्रूषादिगुणान्वितः॥ -वहीं, २१०
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