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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन होती है । यद्यपि साधक अनुष्ठानों को क्रियान्वित करने के लिए प्रयत्नशील होता है, तथापि वह आलसवश उनको कार्यान्वित नहीं कर पाता।
२. शास्त्रयोग-इस योग में साधक आलसरहित एवं श्रद्धायुक्त होकर अनुष्ठानों का पालन करता है, जिससे तात्त्विक बोध अर्थात् सम्यग्दृष्टि प्राप्त होती है।
३. सामर्थ्ययोग-आत्मकल्याण के लिए शास्त्रों में योग के जिनजिन उत्तम अनुष्ठानों की चर्चा है, उनका अपनी शक्ति एवं सामर्थ्य के अनुसार मोक्ष-प्राप्ति के लिए पालन करना सामर्थ्ययोग है। यह योग वस्तुतः मोक्ष का साक्षात् कारण है, क्योंकि यह :प्रातिभज्ञान से युक्त तथा सर्वज्ञता की प्राप्ति करानेवाला है। इस योग के साधक का अनुभव अनिर्वचनीय होता है । ___ सामर्थ्ययोग के भी दो भेद हैं।- १. धर्मसंन्यासयोग तथा २. योगसंन्यासयोग । धर्मसंन्यासयोग उसे कहते हैं जिसमें रागादि से उत्पन्न क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि भाव होते हैं तथा व्रतों का पालन करते समय कभी जीव उन्नतावस्था में रहता है तो कभी अवनतदशा में। योगसंन्यासयोग में जीव को ऊपर-नीचे होने का प्रश्न ही नहीं रहता, क्योंकि तब तक उसने सम्पूर्ण मन, वचन एवं काय के व्यापार का पूर्णतः निरोध कर लिया होता है। धर्मसंन्यास-योगी आत्मविकास करते-करते क्रमशः योगसंन्यास की अवस्था तक पहुँचता है। इसी अवस्था को शैलेशीकरण की अवस्था भी कहते हैं। इस अवस्था का
१. शास्त्रयोगस्त्विह ज्ञेयो यथाशक्त्यऽप्रमादिनः । .. श्राद्धस्य तीव्रबोधेन वचसाऽविकलस्तथा ॥ -वही, ४ २. शास्त्रसंदशितोपायस्तदतिक्रान्तगोचरः ।
शक्त्पुद्रेकाद्विशेषेण सामर्थ्याख्योऽयमुत्तमः॥-वही, ५ ३. न चैतदेवं यत्तस्मात् प्रातिभज्ञानसंगतः।
सामर्थ्ययोगोऽवाच्योऽस्ति सर्वज्ञस्वादिसाधनम् ॥ -वही, ८ ४. द्विधा यं धर्मसंन्यासयोगसंन्याससंज्ञितः ।
क्षायोपशमिकाधर्मा योगो कायादिकर्म तु । -वही, ९ ५. द्वितीयाऽपूर्वकरणे प्रथमस्तात्त्विको भवेत् ।
आयोज्यकरणादूध्वं द्वितीय इतितद्विदः । -वही, १०
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