________________
जैन योग का स्वरूप
१. विष-अनुष्ठान-इस अनुष्ठान में साधक का उद्देश्य इस जन्म में लब्धि अथवा अलौकिक शक्तियों के द्वारा कीर्ति, सन्मान आदि प्राप्त करना होता है। इस दृष्टि से चारित्र का पालन करना विष-अनुष्ठान कहा गया है। विष-अनुष्ठान इसलिए कहा जाता है कि इसमें रागादिभावों की अधिकता होती है।
२. गरानुष्ठान-इस जन्म के बाद अनेक प्रकार के स्वगिक सुख भोगने की अभिलाषा रखना और इसी दृष्टि से धार्मिक अनुष्ठानों को करना गरानुष्ठान है।
३. अननष्टान-इस अनुष्ठान में गुरु-देवादि की पूजा अथवा सत्कार किया जाता है, लेकिन यह क्रिया संमछेन' जीवों की मानसिक शन्यता जैसी होती है; फलतः इन क्रियाओं के प्रति न श्रद्धा होती है, न विवेक ही। इस अनुष्ठान में मात्र शरीर-निर्वाह ही होता है।
४. तद्धेतु अनुष्ठान-इसमें साधक यम, नियम, ध्यान, जपादि धार्मिक अनुष्ठानों को अपनी शुभ प्रवृत्ति द्वारा करता है। यद्यपि इस अनुष्ठान में भी रागादि भावों का अंश होता है, परन्तु वह सांसारिक न होकर मोक्षाभिमुखी होता है। इसलिए अद्वेष बुद्धि के कारण इस अनुष्ठान को अमृतानुष्ठान का कारण माना गया है।
५. अमृतानुष्ठान--सर्वज्ञ द्वारा कथित मार्ग का समझ-बूझकर एवं श्रद्धापूर्वक आचरण कर मोक्ष प्राप्त करना अमृतानुष्ठान है। साक्षात् मोक्षदायक होने के कारण यह उत्तम अनुष्ठान माना गया है। इसमें समस्त इच्छाएँ फलीभूत होती हैं । योग के अन्य तीन प्रकार
साधनों की अपेक्षा से योग के पाँच प्रकारों के अतिरिक्त तीन प्रकार के योगों का भी उल्लेख मिलता है। वे इस प्रकार हैं-(१) इच्छायोग, (२) शास्त्रयोग तथा (३) सामर्थ्ययोग ।
१. इच्छायोग:-इस योग में मात्र अनुष्ठान करने की इच्छा जाग्रत १. बिना गर्भ के उत्पन्न होनेवाले जीवों को संमूर्च्छन कहते हैं । २. योगबिन्दु, १५९-१६० ३. कर्तुमिच्छोः श्रुतार्थस्य ज्ञानिनोऽपि प्रमादतः ।
विकलो धर्मयोगो य: स इच्छायोग उच्यते॥-योगदृष्टिसमुच्चय, ३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org