________________
६८
जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन
तीन प्रकार के साधन ज्ञान-योग में परिगणित होते हैं, क्योंकि इनमें क्रिया की अपेक्षा ज्ञान पर विशेष बल दिया गया है ।"
१. स्थान - इसमें आसनादि क्रियाओं का विधान है ।
२. ऊर्णं अथवा वर्णं - इसमें शास्त्रविहित सूत्रों का पाठ होता है तथा सूत्र के उच्चारण में उसके स्वर, सम्पदा, मात्रा आदि पर ध्यान दिया जाता है । इस साधन को वर्णयोग भी कहते हैं ।
३. अर्थ - वस्तुतः अर्थं का तात्पर्य उन सूत्रों से है, जो सही-सही उच्चारणपूर्वक पढ़े जाते हैं । अर्थात् आत्मतत्त्व के गूढ़ रहस्य को समझने के लिए सूत्र का सम्यक् अर्थ समझना आवश्यक है और इसके लिए सूत्रों का शुद्ध उच्चारण अपेक्षित है । यह साधन ज्ञानयोग का प्रारम्भ बिन्दु है ।
४. आलम्बन - इसमें साधक किन्हीं बाह्य साधनों को ध्येय मानकर ध्यान की क्रिया करता है, जो मन की एकाग्रता के लिए आवश्यक है । इस साधन को उत्तम योगानुष्ठान कहा गया है ।
५. अनालम्बन - बाह्य आलम्बनों का त्याग करके केवल आत्मस्वरूप का ही चिन्तन करने को अनालम्बन योग कहा जाता है। इस योग में बाह्य पदार्थों का सम्पूर्णतः बहिष्कार हो जाता है, मन केन्द्रित हो जाता है, आत्मस्वरूप की प्रतीति होने लगती है और योग की प्रक्रिया पूरी हो जाती है।
योग के पाँच अनुष्ठान
योग-साधना की सिद्धि के लिए अनुष्ठान अर्थात् क्रियाएँ आवश्यक हैं । आध्यात्मिक विकास में सहायक अनुष्ठान पाँच प्रकार के हैं - (2) विषानुष्ठान, (२) गरानुष्ठान, (३) अननुष्ठान, (४) तद्धेतु अनुष्ठान तथा (५) अमृतानुष्ठान। इन अनुष्ठानों में पहले तीन असदनुष्ठान हैं, क्योंकि ये रागादिभाव से युक्त होने के कारण लौकिक हैं । अन्तिम दो अनुष्ठान रागादिभाव से रहित होने के कारण सदनुष्ठान माने जाते हैं इसलिए पारलौकिक हैं ।
१. ठाणुन्नत्थालम्बण-रहिओ तंतम्मि पंचहाएसी । दुग्गमित्य कम्मजोगो. तहातियं नाणजोगो उ ॥ २. योगबिन्दु, १५५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
- योगविंशिका,
२
www.jainelibrary.org