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जैन योग का स्वरूप
नाओं को हटाकर मन को परिशुद्ध करने का है। अतः मनोविजय के लिए अथवा विषय-वासनाओं के क्रमशः क्षय के लिए इन्द्रियों का संयम रखना तथा संसार के प्रति वैराग्य का भाव रखना आवश्यक है। क्योंकि संयम जहाँ साधक की इन्द्रियों को अपने वश में करने का प्रयत्न करता है, वहाँ वैराग्य की भावना सांसारिक लोभ, मोह आदि कषायों से क्रमशः निवृत्ति का उपक्रम करती है। अतः साधक के लिए संसार के प्रति निःसारता का भाव रखना आवश्यक है। वैराग्य के तीन प्रकार हैं-१. दुःखगर्भित, २. मोहगर्भित, ३. ज्ञानगर्भित ।'
१. दुःखगभित वैराग्य-जीवन के प्रति निराश होकर कुटुम्ब का त्याग करके साधु बनना।
२. मोहभित वैराग्य-आप्तजनों के मर जाने पर मोहवश अथवा असह्य वियोग के कारण साधुवृत्ति अपनाना।
३. ज्ञानभित वैराग्य-पूर्व-संकार अथवा गुरूपदेश से आत्मज्ञान की . प्राप्ति होने पर संसार त्यागना । अर्थात् इस वैराग्य में संस्कारवश अथवा गुरु के उपदेशों से संसार के प्रति निवृत्ति की भावना पैदा होती है। ___अतः इन तीनों प्रकार के वैराग्यों में प्रथम दो प्रकार के वैराग्य कषायोजनक हैं। उनमें पूर्ण अनासक्ति अथवा वीतरागता का अंश नहीं होता । परन्तु तीसरे प्रकार के ज्ञानभित वैराग्य में सांसारिक वस्तुओं के प्रति तनिक भी मोह-माया नहीं होती। इस प्रकार वैराग्य धारण करने से योग-साधना में यथोचित सहायता मिलती है और साधक सरलतापूर्वक साधना में विकास करता रहता है। साधन की अपेक्षा से योग के प्रकार
प्रमुख रूप से योग के उत्कृष्ट साधन इस प्रकार हैं-(१) स्थान, (२) ऊर्ण ( वर्ण ), (३) अर्थ, (४) आलम्बन तथा (५) अनालम्बन । इन साधनों को दृष्टि में रखकर योग के भी पाँच प्रकार माने गये हैं। इनमें से प्रथम दो प्रकार के साधन कर्मयोग के अन्तर्गत आते हैं, क्योंकि इनमें कायोत्सर्गादि आसन, तप, मंत्र, जप आदि क्रियाओं को करना पड़ता है। वस्तुतः ये साधन आचार-मीमांसा से सम्बन्धित माने गये हैं। शेष
१. कर्तव्यकौमुदी, भा॰ २, पृ. ७०-७१
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