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________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन हैं-(१) प्रणिधान, (२) प्रवृत्ति, (३) विघ्नजय, (४) सिद्धि और (५) विनियोग ।। १. प्रणिधान-अपने आचार-विचार में अविचलित रहते हुए निम्न कोटि के जीवों के प्रति किसी भी प्रकार का राग-द्वेष न रखना प्रणिधान चित्तशुद्धि है । साधक को स्वार्थी, दम्भी एवं दुराग्रही जीवों के प्रति भी श्रद्धा, परोपकार, विनय आदि भावना रखनी चाहिए। २. प्रवृत्ति-विहित धार्मिक व्रत-नियमों अथवा अनुष्ठानों का एकाग्रतापूर्वक तथा सम्यक् पालन करना प्रवृत्ति है-निर्दिष्ट योगसाधनाओं में मन को प्रवृत्त किया जाता है। ३. विघ्नजय-योग-साधना के दौरान आनेवाले विघ्नों पर जय पाना विघ्नजय क्रियाशुद्धि है। क्योंकि यम-नियमों का पालन करते समय अनेक प्रकार की बाह्य, आन्तरिक एवं मोहदशाजन्य कठिनाइयाँ उपस्थित होती हैं और बिना उन पर विजय पाये साधना पूर्ण नहीं हो सकती। ४. सिद्धि-इस चित्तशुद्धि की अपेक्षा तब होती है, जब साधक को सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति होती है और उसको आत्मानुभव होने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती। समताभावादि की उत्पत्ति से साधक की कषायजन्य सारी चंचलता नष्ट हो जाती है और वह निम्नवर्ती जीवों के प्रति दयाभाव, आदर-सत्कारादि सहज ही बरतने लगता है। ५. विनियोग-सिद्धि के बाद विनियोग-चित्तशुद्धि प्रारम्भ होती है, क्योंकि तब तक साधक की धार्मिक वृत्तियों में क्षमता, शक्ति आ जाती है तथा उत्तरोत्तर आत्मिक विकास होने लगता है। इस अवस्था में परोपकार, कल्याण आदि भावनाओं की वृद्धि करने के प्रयत्न को ही विनियोग-जय कहते हैं। वैराग्य योगसिद्धि के लिए जितना महत्त्व तप, उपवास, आसन आदि शारीरिक क्रियाओं का है, उससे अधिक महत्त्व आन्तरिक विषय-वास१. प्रणिधिप्रवृत्तिविघ्नजयसिद्धिविनियोग भेदतः प्रायः । धर्म राख्यातः शुभाशयः पंचधाऽत्र विधो ।। -षोडशक, ३१६ २. षोडशक, ३१७-११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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