________________
जैन योग का स्वरूप
हुए भी विनय, दाक्षिण्य, दया, वैराग्य आदि सद्गुणों की प्राप्ति में तत्पर रहता है। अर्थात् अचरमावर्ती जीवों के विपरीत इस स्थान में साधक ज्ञान एवं चारित्रयुक्त होकर ग्रंथिभेद करने में समर्थ होता है । इसके बाद सम्यग्दृष्टि की स्थिति प्रारम्भ होती है, जिसमें साधक सांसारिक प्रपञ्चों से व्यामोहित होते हए भी मोक्षाभिमख होता है। अर्थात योगी संसार में रहते हुए भी आन्तरिक भावनाओं के द्वारा मुक्ति के उपायों के विषय में चिन्तन करता रहता है। इस कारण उसे भावयोगी भी कहा जाता है।' भावयोगी घर-गृहस्थी में रहते हुए भी लोभ, ममता आदि बन्धनों से विमुक्त और आत्मध्यान में लीन रहता है । वस्तुतः यह स्थिति देशविरति की है। इस प्रकार वह आचार-विचारों से संवलित और विकसित होकर अनेक प्रकार के कायक्लेश सहता हुआ, मार्गानुसारी की विधियों - का सम्यकपेण पालन करता हुआ, श्रद्धालु, लोकप्रिय एवं पुरुषार्थी बनकर, शुभपरिणामों को धारण करता हुआ सर्वविरति की अन्तिम भूमिका में पहुंचता है। यहाँ पहुँचकर वह क्रमशः सर्वप्रकार के परिग्रहों के त्याग के बाद सर्वज्ञ बन जाता है । वहाँ उसकी योग-साधना पूर्ण हो जाती है। चित्तशुद्धि के उपाय - जैन योग के अन्तर्गत धर्म-व्यापार के रूप में अष्टांगयोग का निर्देश है जिसके क्रम में पाँच प्रकार को चित्तशुद्धि का वर्णन है, जिनसे क्रियाशुद्धि होती है और जिनके सम्यक् पालन से साधक की प्रवृत्ति धार्मिक अनुष्ठानों की ओर उन्मुख होती है। फलतः शुभ-विचारों के निरन्तर चिन्तन से कर्मों की शुद्धि होती जाती है । चित्तशुद्धि के पाँच प्रकार ये
१. भवाभिनन्दि दोषाणां प्रतिपक्षगुणैर्यतः ।
वर्धमानगुणप्रायो, ह्यपुनर्बन्धको मतः ॥ -योगबिन्दु, १७८ २. भिन्नग्रन्थेस्तु यत्प्रायो मोक्षे चित्तं भवे तनुः ।
तस्य तत्सर्व एवेह योगो योगो हि भावतः ॥ न चेह ग्रन्थिभेदेन पश्यतो भावमुत्तमम् ।
इतरेणाकुलस्यापि तत्र चित्तं न जायते ॥ -वही, २०३, २०५ ३. वही, ३५१-५२ ४. योगप्रदीप, ५१-५२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org