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जैन योग का आलोच नात्मक अध्ययन वे संसारप्रवाह में मर्यादित तथा परिमित काल के लिए होते हैं तथा संसार-बन्धनों का उच्छेद करने की शक्ति रखते हैं। वे जीव शुक्लपाक्षिक, भिन्नग्रन्थि एवं चारित्रिक जैसे अध्यात्म उपायों के अधिकारी होते हैं, क्योंकि उन पर मोह का अथवा मिथ्यात्व-परिणामों का तीव्र दबाव भी नहीं रहता और न मन में मलिनता ही रहती है। वे मुक्ति के निकट होते हैं ।' चरमावर्त में आया हुआ प्राणी मुक्ति के निकट होता है । उसने बहुत से पुद्गल-परावर्तों का उल्लंघन कर दिया है। उसका एक बिन्दु स्वरूप मात्र एक आवर्त शेष है, जैसे कि समुद्र में एक बिन्दु जल अवशिष्ट रहे । अर्थात् चरमावर्ती साधक सम्पूर्ण मिथ्यात्वों से रहित होकर मुक्ति के द्वार पर पहुँच गया होता है ।
चरमावतं-काल में जीव सम्पूर्ण आन्तरिक भावों से परिशुद्ध होकर जिन क्रियाओं का सम्पादन करता है, उन क्रियाओं के साधनों को योग कहा गया है। तथा जीव आध्यामिक विकास की ओर अग्रसर होते हुए समता की प्राप्ति करता है, जहाँ उसे न सुन्दर-असुन्दर का मोह होता है, न किसी प्रकार का सांसारिक प्रलोभन रहता है और न मिथ्यात्व का परिणाम ही रहता है। आत्मविकास में जीव की स्थिति ____ आत्मविकास की ओर अग्रसर होने के क्रम में चरमावर्ती जीव जिन-जिन स्थितियों से गुजरता है, उन स्थितियों की चार कोटियाँ हैं(१) अपुनर्बन्धक, (२) सम्यग्दृष्टि, (३) देशविरति एवं (४) सर्वविरति ।'
अपुनर्बन्धक वह स्थिति है, जहाँ साधक मिध्यात्व परिणामी रहते १. चरमेपुद्गलावर्ते, यतो यः शुक्लपाक्षिकः ।
भिन्न ग्रंन्थिश्चरित्री च तस्यैवैतदुदाहृतम् । -योगबिन्दु; ७२, मुक्तिमार्गपरं युक्त्या युज्यते विमलं मनः । सबुढ्यासन्न भावेन, यदमीषां महात्मानाम् ।। -वही, ९९ चरमावर्तिनो जन्तोः सिद्धरासन्नता ध्रुवम् । भूयास्रोऽमी व्यतिक्रान्तास्तेष्वेको बिन्दुरम्बुधौ ॥
-मुक्त्यद्वेषप्राधान्यद्वात्रिंशिका, २८ ३. योगलक्षणद्वात्रिंशिका, २२ ४. योगशतक, १३-१६; योगबिन्दु, १७७-८, २५३, ३५१-२; १०२
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