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________________ जैन योग का स्वरूप विवेकरहित एवं अध्यात्म-भावनादि क्रिया-कर्मो से विमुख होती है।' सांसारिक पदार्थो में लोभ-मोह के कारण ही जीव को भवाभिनन्दी कहा गया है। यद्यपि अचरमावर्ती अथवा भवाभिनन्दी जीव धार्मिक व्रतनियमों का अनुष्ठान भी करता है, लेकिन यह सब श्रद्धाविहीन होता है। सद्धर्म एवं लौकिक कार्य भी वह कीर्ति, प्रतिष्ठा आदि की कामना से करता है। इस दृष्टि से उसे लोकपंक्ति कृतादर भी कहा गया है।' ऐसी भावनावाले जीव की वृत्ति कभी स्थिर नहीं रहती और आहार, भय, मैथुन एवं परिग्रह में लिप्त रहने के कारण वह सदैव दुःखी एवं संतप्त रहता है। वह सदा दूसरों की बुराइयों एवं प्रतिघातों में लगा रहता है। इस प्रकार वह जीव क्षुद्रवृत्ति, अपरोपकारी, भयभीत, ईर्ष्यालु, मायाचारी और मूर्ख होता है। ऐसे स्वभाववाले साधक भले ही यम-नियमों का पालन करें, लेकिन अन्तःशुद्धि के अभाव में वे योगी नहीं हो सकते । वे भी योगी होने के अधिकारी नहीं हो सकते, जो लौकिक हेतु अथवा लौकिक प्रदर्शन या आकर्षण के भाव से योग-साधना में प्रवृत्त होते हैं। __ चरमावर्त में चरम और आवर्त दो शब्द हैं। चरम का अर्थ है अन्तिम और आवर्त का अर्थ है पुद्गलावर्त । अतः इस आवर्त में स्थित जीव चरमावर्ती कहलाता है। इसमें जीव की धार्मिक, यौगिक अथवा आध्यात्मिक जागृति होती है अर्थात् योगदृष्टि का प्रादुर्भाव यहीं से होता है। चरमावर्ती जीव स्वभाव से मृदु, शुद्ध तथा निर्मल होते हैं। १. प्रदीर्घभवसद्भावान्मालिन्यातिशयास्तथा । अतत्त्वाभिनिवेशाच्च; नान्येष्वन्यस्य जातुचित् । -योगबिन्दु, ७३ तस्मादचरमावर्तेष्व अध्यात्म नैव युज्यते ॥ -योगबिन्दु, ९३ भवाभिनन्दिनः प्रायस्त्रिसंज्ञा एव दु:खिता, केचित् धर्मकृतोऽपि स्युलॊकपंक्तिकृतादराः। लोकाराधनहेतोर्या मलिनेनान्तरात्मना । क्रियते सक्रियासात्र लोकपंक्तिरुदाहृता ॥ -योगबिन्दु, ८६-८८%) तथा योगसारप्राभृत, ८1१८-२१ ३. क्षुद्रोलाभरतिर्दीनो मत्सरी भयवान् शठः ।। __अज्ञो भवाभिनन्दि स्यानिष्फलारम्भसंगतः ॥ -योगबिन्दु; ८७ ४. योगशतक, परिशिष्ट, पृ० १०९; मात्मस्वरूपविचार, १७३-७४ ५. नवनीताविकल्पस्तच्चरमावर्त इष्यते । अत्रैव विमलौ भावी गोपेन्द्रोऽपि यदभ्यद्यात् । -योगलक्षणद्वात्रिंशिका, १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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