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________________ ६२ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन से योगसाधना में सफलता प्राप्त होती है । गुरु सेवादि धर्मकृत्य बाधारहित करने से लोकोत्तर तत्त्व की सम्प्राप्ति होती है ।" गुरु की भक्ति एवं सानिध्य से साधक का मन ध्यान में इतना एकाग्र हो जाता है कि उस अवस्था में उसे तीर्थंकर - दर्शन का साक्षात् लाभ होता है और साधक मोक्षगति भी प्राप्त करता है । * आत्मा व कर्म का सम्बन्ध आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादि है । दोनों का स्वभाव परस्परविरोधी है । आत्मा जहाँ स्वभाववश चेतन व ज्ञानादिरूप है; वहाँ कर्म अचेतन व रागादिभाव से युक्त है। हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह आदि जो मन की पाप प्रवृत्तियाँ हैं, उन्हीं से कर्मों की उत्पत्ति एवं स्थिति होती है । इस प्रकार जीव अर्थात् आत्मा जब परद्रव्य में राग तथा द्वेषवश शुभ एवं अशुभ भाव को ग्रहण करता है, तब वह कर्मास्रवों का कारण बनता है, क्योंकि जीव अपने स्वरूप को भूलकर परद्रव्यों के अवलम्बन में ही लगा रहता है और भ्रमवश उन्हीं विषयों को अपने लिए सुखद अथवा दुःखद मान बैठता है । अतः योगसाधना में उपार्जित कर्मो का पूर्णतः क्षय किया जाता है तथा आनेवाले कर्म - पुद्गलों का भी वर्जन कर दिया जाता है । योगाधिकारी के भेद योगबिन्दु के अनुसार योगाधिकारी साधक की दो कोटियाँ हैंअचरमावर्ती तथा चरमावर्ती । अचरमावर्ती जीव पर मोहादि भावों का चरम दबाव रहता है, जिसके फलस्वरूप उसकी प्रवृत्ति घोर सांसारिक, १. एवं गुरुसेवादि च काले सद्योगविघ्नवर्जनया | इत्यादिकृत्यकरणं लोकोत्तरतत्त्वसम्प्राप्ति ॥ २. गुरुभक्तिप्रभावेन तीर्थकृद्दर्शनं मतम् । समापत्यादिभेदेन निर्वाणैकनिबन्धनम् ॥ ३. योगसारप्राभृत, ५३८९ ४. वही, ३।३०-३१ ५. पंचाक्षविषयाः किंचिन् नास्य कुर्वन्त्यचेतनाः । मन्यते स विकल्पेन सुखदा दुःखदा मम । Jain Education International — षोड़शक; ५।१६ - योग दृष्टिसमुच्चय, ६४ For Private & Personal Use Only — वही, ५१२८ www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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