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जैन योग का स्वरूप जीवन से सम्बन्ध रखते हैं तथा समतायुक्त एवं अनासक्त होने और आत्मकल्याण हेतु प्रयत्नशील बनने का आदेश देते हैं। वस्तुतः इन आधारभूमिकाओं के स्थिर हो जाने पर गृहस्थ साधक भी श्रमणों की भांति योगसाधना में सफल होते हैं, क्योंकि मोही साधु की अपेक्षा निर्मोही श्रावक श्रेष्ठ होता है।' ___ योग-संग्रह को ही प्रकारान्तर से योगबिन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय तथा योगशतक' में क्रमशः पूर्वसेवा, योगबीज तथा लौकिक धर्म-पालन की संज्ञा दी गयी है और कहा है कि इनका पालन साधक के लिए आवश्यक है। गुरु को आवश्यकता एवं महत्ता
योगी पूर्वसेवा अर्थात् प्रारम्भिक क्रियाओं के सम्यक्पालन के साथसाथ योग्य गुरु का सत्संग भी करता है, क्योंकि बिना सद्गुरु के विषयों तथा कषायों की चञ्चलता में वृद्धि होती है तथा शास्त्र एवं शुद्ध भावनाओं का नाश होता है। अत: गुरु द्वारा साधक शास्त्र-वचनों का मर्म तथा तत्त्वज्ञान की प्राप्ति करता है, जिनसे आध्यात्मिक ज्ञान में वृद्धि होती है और आत्मविकास होता है। कहा भी है कि तत्त्वज्ञान अर्थात् ज्ञान की लब्धि दो प्रकार से होती है-(१) पूर्वसंस्कार से तथा (२) गुरु की उपासना से ।' पूर्व-संस्कार से उत्पन्न ज्ञान में भी गुरु-संवाद अर्थात् आत्मचर्चा निमित्त कारण होती है । संयम की वृद्धि, तत्त्वज्ञान आदि के लिए गुरु का सान्निध्य आवश्यक है, क्योंकि उनके सान्निध्य और उपदेश
१. गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान् । अनगारो गृही श्रेयान्, निर्मोहो, मोहिनो मुनेः ।
रत्नकरण्डश्रावकाचार, १३३ २. योगदृष्टिसमुच्चय, २२-३; २७-८ ३. योगशतक, २५-२६
तावद् गुरुवचः शास्त्रं तावत् तावच्च भावनाः ।
कषायविषयैर्यावद् न मनस्तरली भवेत् । -योगसार, ११९ ५. तत्र प्रथमतत्त्वज्ञान संवादको गुरुर्भवति।।
दर्शयिता त्वपरस्मिन् गुरुमेव भजैत्तस्मात् ॥ -योगशास्त्र, १२-१
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