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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन ९. तितिक्षा-परीषहजय । १०. ऋजुभाव-भावों में सरलता। ११. शुचि-सत्य और संयमवृद्धि । १२. सम्यग्दृष्टि-साधना व चर्या में श्रद्धा। १३. समाधि-एकाग्रता रखना। १४. आचार-आचार में दृढ़ता। १५. विनय-भावों में मदुता रखना। १६. धृतिमति-धैर्यप्रधान दृष्टि । १७. संवेग-संसारभय । १८. प्राणिधि-मायारहित होना। १९. सुविधि-सदनुष्ठान । २०. संवर-कर्मो के कारणों को रोकना। २१. आत्मदोषोपसंहार-अपने दोषों का निरोध । २२. सर्वकाम विरति-कामनाओं के प्रति विरक्ति । २३. प्रत्याख्यान-मूलगुणविषयक । २४. प्रत्याख्यान-उत्तरगुणविषयक । २५. व्युत्सर्ग-त्याग। २६. अप्रमाद-प्रमाद से बचना । २७. लवालव-प्रत्येक समय में साध्वाचार का पालन करना। २८. ध्यान-संवरयोग। २९. मारणांतिक उदय-मरणकाल में दुःख-क्षोभ प्रकट नहीं करना। ३०. संग का त्याग । ३१. प्रायश्चित्त । ३२. मारणांतिक आराधना-शरीर-त्याग और कषाय क्षीण करते समय
का तप ।
इस योगसंग्रह को योग की आधार-भूमि माना गया है और इसे सुदृढ़ तथा फलीभूत बनाने का आदेश दिया गया है। यहाँ तक कहा गया है कि श्रावक व्यावहारिक जीवन बिताते हुए भी इन योग-संग्रहों का सम्यक् पालन करने से पूर्ण योगी की भूमिका पर पहुंच सकता है। गृहस्थ-धर्म में मार्गानुसारी' के कई ऐसे गुण हैं जो उनके लौकिक १. मार्गानुसारी के ३५ गुण बतलाये हैं । -योगशास्त्र, ११४७-५६
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