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________________ जैन योग का स्वरूप सम्बन्ध अत्यन्त घनिष्ठ है । ध्यान का स्थिरीकरण मन की स्थिरता पर ही निर्भर करता है। जिसने मन को वश में कर लिया उसके लिए संसार में कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जो वश में न की जा सके। इस प्रकार मन की विजय योग की सफलता की कुञ्जी है। ___ योग की साधना में संलग्न होने के लिए साधक को विभिन्न आचारविचारों का सम्यकप से पालन करने का विधान है। यहाँ तक कि अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रत, समिति, गप्ति आदि चारित्राचार का पालन योगसाधना को प्राथमिक भूमिका से लेकर निष्पन्न अवस्था तक किया जाता है । श्रावकों और श्रमणों के लिए अलग-अलग आचार-चर्या का विधान है। श्रमणों की अपेक्षा श्रावकों को परिस्थिति एवं काल की अपेक्षा से मर्यादित व्रत-नियमों का पालन करना पड़ता है, फिर भी योग-साधना के लिए उसे भी पूरी छट है। वह भी श्रमण की भाँति सम्पूर्ण परिग्रह से मुक्त होकर अर्थात् वैराग्य धारण करके योग-साधना में संलीन हो सकता है। अतः चारित्र-विकास की दृष्टि से दोनों श्रेणियों के योगी साधकों के लिए आवश्यक-अनावश्यक वस्तुओं के त्याग एवं ग्रहण करने का विधान है, जिनका उल्लेख योग-संग्रह के अन्तर्गत हुआ है। योग-संग्रह योग-संग्रह संक्षेप में ३२ प्रकार का है१. आलोचना-गुरु के निकट अपने दोषों को स्वीकार करना । २. निरपलाप-शिष्य के दोष दूसरों पर प्रकट नहीं करना।। ३. व्रतों में स्थिरता-आपत्ति-काल में अंगीकृत व्रत-नियमों का परि त्याग न करना। ४. अनिश्तिोपधान-दूसरों की सहायता के बिना तप करना । ५. शिक्षा शास्त्रों का पठन-पाठन । ६. निष्प्रतिकर्मता-शरीर-संस्कार न करना । ७. अज्ञातता-तप के बारे में गप्तता रखना। ८. अलोभता-किसी वस्तु के प्रति लोभ न रखना। १. ध्यानं मनःसमायुक्त मनस्तत्र चलाचलम् । ___ वश्यं येन कृतं तस्य भवेद्वश्यं जगत्त्रयम् ।।-योगप्रदीप, ७९ २. समवायांगसूत्र, ३२; स्थानांगसमवायांग, पृ० १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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