________________
५८
जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन अवस्था में साधक की स्थिति मर्कटलीला की तरह होती है अर्थात् वह क्षण-क्षण एक विषय से दूसरे विषय में संचरित होता है, जिसके फलस्वरूप अनेक कर्म-पुद्गलों के परिणाम बँधते हैं और चित्त की विकलता बढती है । यद्यपि विक्षिप्त मन की अपेक्षा यातायात मन में इन्द्रियाँ कुछ शान्त रहती हैं, लेकिन शान्ति कुछ समय के लिए ही होती है । जेसे ही विषयों के साधन समक्ष आते हैं, वैसे ही रागादि भाव उमड़ पड़ते हैं । अतः इन दोनों को आन्तरिक शान्ति के लिए, अभ्यासपूर्वक शान्त करने का प्रयास योगी के लिए सर्वप्रथम आवश्यक है।
श्लिष्ट मन की भूमिका यातायात मन के बाद प्रारम्भ होती है । इस मन के निरोध के अभ्यास से चित्तवृत्तियाँ शान्त हो जाती हैं तथा आन्तरिक शान्ति का अनुभव होने लगता है । सुलीन मन में आनन्द की अनुभूति के कारण चित्त एकाग्र होकर आत्मलीन हो जाता है । यही कारण है कि इस मन के अभ्यास से साधक को परमानन्द अर्थात् स्वानु. भूति का आनन्द होता है ।'
इस सन्दर्भ में कहा गया है कि मन स्थिर करने के लिए साधक को सर्वप्रथम अपनी प्रिय वस्तु पर मन को केन्द्रित करना चाहिए। इस चुनाव में साधक को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि मन शुभ प्रवृत्ति की ही ओर प्रवृत्त रहे । इस प्रकार प्रिय वस्तु का बारम्बार चिन्तन-मनन करने से एक स्थिति ऐसी आयेगी कि साधक का मन अपने आप उस वस्तु से ऊब जायेगा और दूसरी वस्तु की ओर उन्मुख होगा । उस वस्तु के बारम्बार चिन्तन-मनन से पुनः कब पैदा होगी और स्वभावतः उसका मन दूसरी वस्तु की ओर प्रवृत्त होगा। ऐसा करने से दो लाभ होते हैं। एक तो ऐसे मन की एकोन्मुखता का अभ्यास होता जाता है, जो ध्यान तथा योग के लिए आवश्यक है। दूसरे, वस्तु की यथार्थता तथा व्यर्थता का ज्ञान होता है और स्वभावतः मन परमतत्त्व की ओर आकर्षित होता जाता है। अतः मन के इस प्रकार के अभ्यास से साधक की द्विविधा नष्ट हो जाती है और उसका मन किसी एक ही विषय में स्थिर हो जाता है । इन चार प्रकार के मन का क्रमशः अभ्यास करते-करते साधक ध्यान का स्थिरीकरण भी कर लेता है, क्योंकि ध्यान और मन का १. श्लिष्ट स्थिरसानन्दं सुलीनमतिनिश्चलं परमानन्दम् ।
तन्मात्रकः विषयग्रहमुभयमपि बुद्यस्तदाम्नातम् ।।-वही, १२।४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org