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________________ जैन' योग का स्वरूप ५७ योगी वही है जिसने श्वास को जीत लिया है, जिसके लोचन निस्पन्द हो गये हैं।' जो इन्द्रियों के वश में होते हैं, वे योगी नहीं हैं। योग के लिए मन की समाधि एवं प्रकार योगसिद्धि के लिए मन की समाधि परम आवश्यक है। योगाभ्यास के लिए सर्वप्रथम मन को संयमी करना अनिवार्य है; क्योंकि मन के कारण ही इन्द्रियाँ चंचल होती हैं, जो आत्मज्ञान में बाधक हैं तथा एकोन्मुखता के मार्ग में भटकाव पैदा करती हैं। मन की अस्थिरता के कारण ही रागादि भाव की वृद्धि होती है तथा कर्म-प्रकृतियों का बन्ध होता है। कर्म चाहे पुण्यप्रकृति के हों या पापप्रकृति के, अन्ततः दोनों ही संसार-बन्धन के कारण हैं। इसलिए दोनों प्रकार के कर्मों को नष्ट करना यौगिक स्थिरता के लिए आवश्यक है। चञ्चल मन को सर्वथा स्थिर करना योग की पहली शर्त है। अतः मन की समाधि योग का हेतु तथा तप का निदान है, क्योंकि मन को केन्द्रित करने के लिए तप आवश्यक है, तप शिवशर्म का, मोक्ष का मूल कारण है। योगशास्त्र के अनुसार मन के चार प्रकार हैं : (१) विक्षिप्त मन, (२) यातायात मन, (३) श्लिष्ट मन, (४) सुलीन मन। विक्षिप्त मन का स्वभाव चञ्चल होता है और यातायात मन का स्वभाव विक्षिप्त मन की अपेक्षा कुछ कम चञ्चल होता है तथा मन को शान्ति प्रदान करनेवाला भी होता है। इसलिए योग-साधकों के लिए इन दो प्रकार के मन पर नियन्त्रण करना आवश्यक है। योग की प्रथम १. णिज्झियसासो णिप्फद लोमणो मुक्कसयलवावारो। एयाइं अवत्थ गो सो जोयउ पत्थि संदेहो ॥-पाहुडदोहा, २०३ २. सो जोयउ जो जागयई णिम्मलि जोइ यजोइ ।। जो पुणु इंदियवसि गयउ सो इह सावयलोई ॥-वही, ९६ ३. योगस्य हेतुर्मनसः समाधिः परं निदानं तपस्यश्चः योगः । तपश्च मूलं शिवशर्म मनः समाधि भज तत्कथंचित् । -अध्यात्मकल्पद्रुम, ९।१५ ४. इह विक्षिप्तं यातायातं श्लिष्ट तथा सुलीनं च । चेतश्चतुः प्रकारं तज्ज्ञचमत्कारकारि भवेत् ॥-योगशास्त्र, १२।२ ५. विक्षिप्तं चलमिष्टं यातायात च किमपिसानन्दम् । प्रथमाभ्यासे द्वयमपि विकल्प-विपयग्रहं तत्स्यात् ।।- योगशास्त्र, १२॥३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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