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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन
क्योंकि योगदर्शन के अनुसार वृत्तियों का निरोध योग है और वह पुरुष के कैवल्य की प्राप्ति में प्रधान कारण है। किन्तु यह योग एक शक्ति विशेष है, जो कमरज को आत्मा तक लाता है।'
जैन-परम्परा में 'योग' शब्द का पातंजल-योगदर्शनसम्मत सर्वप्रथम प्रयोग आचार्य हरिभद्र द्वारा किया गया है। योग को पारिभाषित करते हुए उन्होंने कहा है कि मोक्ष-प्राप्ति के लिए जो धर्म-क्रिया अथवा विशुद्ध व्यापार किया जाता है, वह धर्म-व्यापार 'योग' है ।२ यमनियमादि व्यापार जीव के परिणामों की शुद्धि के लिए ही किये जाते हैं तथा इनका उद्देश्य मन, वचन एवं काय द्वारा अर्जित कर्मो की शुद्धि करना ही है। इस दृष्टि से समिति, गुप्ति आदि आचार-विचारों का अनुष्ठान उत्तम योग है, क्योंकि इनसे संयम वृद्धि होती है और योग भी आत्मा की ही विशुद्धावस्था का मार्ग है, जिससे जीव को सर्वोच्च अवस्था की प्राप्ति होती है । योग का महत्त्व एवं लाभ
ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूपी रत्नत्रय-योग ही परम उच्च मोक्षपद को प्राप्त करने का उत्तम साधन है। यह योग शास्त्रों का उपनिषद् है, मोक्षप्रदाता है तथा समस्त विघ्नबाधाओं को शमन करनेवाला है, इसलिए कल्याणकारी है। यह इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति करानेवाला कल्पतरु एवं चिन्तामणि है। धर्मो में प्रधान यह योगसिद्धि स्वयं के अनुग्रह अथवा अध्यवसाय से मिलती है। सच्चा
१. पंचम कर्म ग्रन्थ, विवेचनकर्ता पं० कैलाशचंद्र शास्त्री, पृ० १५० २. मुक्खेण जीयणाओ, जोगी सम्वो वि धम्मवावारो।—योगविंशिका, १ ३. यतः समितिगुधिना प्रपंची योग उत्तमः ।-योगभेदद्वात्रिंशिका, ३० ४. ज्ञानदर्शनचारित्ररूप रत्नत्रयात्मकः ।
योगौमुक्तिपदप्राप्तानुप्रायः परिकीर्तितः ।।-योगप्रदीप, ११३ ५. शास्त्रस्योपनिषद्योगो योगो मोक्षस्य वर्तनी । अपायशमनो योगो, योगकल्याणकारकम् ।।
-योगमाहात्म्यद्वात्रिशिका, १ ६. योगकल्पतरु श्रेष्ठौ योगश्चिन्तामणि परः ।
योगः प्रधानं धर्माणां, मोगः सिद्धेः स्वयंग्रहः ।।-योगबिन्दु, ३७
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