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जैन योग का स्वरूप कायोत्सर्ग-मुद्रा से युक्त मूर्ति तथा पटना के नजदीक लोहानीपुर से प्राप्त नग्न कायोत्सर्ग मूर्ति से भी इस बात की पुष्टि होती है।
महर्षि पतंजलि ने जैसे 'योग' शब्द का प्रयोग 'आत्मसाधना' के अर्थ में किया है, वैसे 'योग' शब्द का प्रयोग जैनधर्म में आत्मसाधना के लिए नहीं हुआ है। जैन-परम्परा में मन, वचन और काया की प्रवृत्ति को योग कहा गया है। यह आस्रवरूप है। फिर भी योगसाधना को व्यक्त करनेवाले अंगभूत ऐसे अनेक शब्दों का व्यवहार आगमों में हुआ है जैसे ध्यान, तप, समाधि, संवर आदि । समाधि, तप, ध्यान आदि शब्दों का उपयोग योग की तरह ही हुआ है और वीर्य, स्थान, उत्साह, पराक्रम, चेष्टा, शक्ति एवं सामर्थ्य शब्द प्रकारान्तर से योग के अर्थ को ही व्यंजित करनेवाले माने गये हैं। जैनधर्म-दर्शन का पारिभाषिक शब्द संवर कर्मास्रवों को रोकता है और साधना की दृष्टि से योग से साम्य रखता है । मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग (प्रवृत्ति) से रंजित कर्म ही आस्रव है तथा इन प्रवृत्तियों का निरोध ही संवर है।" योगसूत्रानुसार चित्तवृत्तियों का निरोध योग है। संवर शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में जैन-परम्परा में हुआ है। जैन-परम्परा में योग का अर्थ है मन, वचन और काय की प्रवृत्ति । जैसे वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम या क्षय होने पर मन, वचन एवं काय के निमित्त से आत्मप्रदेशों के चंचल होने को योग कहा गया है, क्योंकि इन तीनों के सूक्ष्मातिसूक्ष्म व्यापारों से ही कर्मों का आस्रव होता है। अतः जैनपरम्परा में 'योग' शब्द योगदर्शन के 'योग' शब्द से साम्य नहीं रखता,
१. जैन साहित्य का इतिहास : पूर्वपीठिका, प्राक्कथन, पृ० १० २. झाणसंवरजोगे य ।-अभिधानराजेन्द्रकोश, भा० ४, पृ० १६५. ३. जोगो विरियं यामो उच्छाह परक्कमो तहा चेट्ठा। सति सामत्थं चिय जोगस्स हवन्ति पज्जाया ।।
-पंचसंग्रह, भा० २, ४ ४. पंचआसवदारा पण्णत्ता, तं जहा, मिच्छत्तं, अविरई, पमायो, कसाया,
जोगा।-समवायांग, ५ ५. आस्रवनिरोधः संवरः।-तत्त्वार्थसूत्र, ९।१ ६. विशेषावश्यकभाष्य, ३५८
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