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________________ : ३ : पृष्ठभूमि भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिक दृष्टि से निवृत्तिपरक विचारधारा का अपना मूल्य एवं महत्त्व है । निवृत्ति जैनधर्म का प्राणतत्त्व है । आत्मिक अथवा आध्यात्मिक विकास के लिए निवृत्ति पर विशेष बल दिया गया है और इसके लिए योग नितान्त अपेक्षित है । यही कारण है कि जैन संस्कृति आचार-विचार एवं तपोमूलक प्रवृत्ति को लेकर अपनी विशिष्टता को सुरक्षित रख सकी है। ऋग्वेद' में वातरशना मुनि के सम्बन्ध में बताया गया है कि अतीन्द्रियार्थदर्शी वातरशना मुनि मल धारण करते हैं, जिससे वे पिंगलवर्ण दिखाई देते हैं । जब वे वायु की गति को प्राणोपासना द्वारा धारण कर लेते हैं, अर्थात् रोक लेते हैं, तब वे अपने तप की महिमा से दीप्त होकर देवतास्वरूप को प्राप्त हो जाते हैं । अतएव यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि तप अर्थात् योग की परम्परा, जैन संस्कृति में प्रारम्भ से रही है । उपनिषदों में तापस और श्रमण को एक माना गया है । इन तथ्यों से स्पष्ट है कि श्रमणों की तपस्या और योग की साधना अत्यन्त पुरानी है और आध्यात्मिक विकास के लिए अनिवार्य मानी गयी है । मोहनजोदड़ो से प्राप्त जैन योग का स्वरूप १. ऋग्वेद, १०।१३६।२ २. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ० १३ ३. अत्र पिताऽपिता भवति माताऽमाता लोका अलोका देवा अदेवा वेदा अवेदाः । अत्र स्तेनोऽस्तेनो भवति भ्रूणहाऽभ्रूणहा चाण्डालोऽचाण्डाल: पौल्कसोऽपौल्कसः श्रमणोऽश्रमणस्तापसौ तापसौऽनन्वागतं पुण्येनानन्वागतं पापेन तीर्णो हि तदा सर्वांछौकान्हृदयस्य भवति । - वृहदारण्यक उपनिषद्, ४।३।२२ ४. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भा० १, (प्रस्तावना), पृ० २१ 5. Modern Review, August, 1932, pp. 155-56 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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