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जैन योग का स्वरूप
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नामक प्रथम योग को पूर्णतया सिद्ध कर लेता है और फिर शेष दोन अवंचक्रों को साध लेता है, तब वह प्रवृत्तचक्रयोगी कहा जाता है । "
निष्पन्नयोगी -- उस योगी को कहते हैं, जिसका योग निष्पत्र अर्थात् पूरा हो गया है । अतः इस योगी को भी योग का अधिकारी नहीं माना गया है, क्योंकि सिद्धि की प्राप्ति के अधिक निकट होने के कारण इस योग में धर्म-व्यापार का सर्वथा लोप हो जाता है और योगी के लिए कुछ भी करना शेष नहीं रहता ।
जप एवं उसका फल
चूँकि ध्यान के अन्तर्गत ही विभिन्न प्रकार के मन्त्रों, जपों आदि का विधान है, अतः इनके सम्बन्ध में विस्तृत रूप से वर्णन आगे किया जायेगा । इसके सम्बन्ध में कुछ विचार कर लेना यहाँ प्रसंगोचित जान पड़ता है, क्योंकि इनके द्वारा योग के स्वरूप का पूर्ण प्रतिबिम्ब स्पष्ट होता है । किसी मन्त्र का बार-बार चिन्तन-मनन करना ही जप है । मन्त्र देवता अथवा जिनेन्द्र की स्तुति से सम्बन्धित होता है और इन मन्त्रों से जहाँ पाप, क्लेश, विषाद आदि दूर होते हैं, वहाँ मानसिक एकाग्रता भी प्राप्त होती है । ऐसे जापों से मोह, इन्द्रियलिप्सा, काम आदि कषायों का शमन होता है और मनोजय, परीषहजय, कर्मनिरोध, कर्मनिर्जरा, मोक्ष तथा शाश्वत आत्मसुख प्राप्त होता है ।
कुण्डलिनी
जहाँ तक जैन- योग का सम्बन्ध है, कुण्डलिनी की चर्चा न आगम ग्रन्थों
१. आद्यावंचक्रयोगाप्त्या तदन्यद्वयलाभिनः । एतेऽधिकारिणो योगप्रयोगस्येति तद्विदः ॥
२. जपः सन्मंत्रविषयः स चोक्तो देवतास्तवः ।
दृष्टः पापापहारोऽस्माद्विषापहरणं यथा ॥ - योगबिन्दु, ३८१
३. सन्मंत्रजपनेनाहो, पापारिः क्षीयतेतराम् ।
-वही, २११
मोहाक्षस्मर चौराद्यैः कषायैः सह दुर्धरैः । १५०;
मनः परीषहादीनां जयः कर्मनिरोधनम् ।
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निर्जरा कर्मणां मोक्षः स्यात्सुखं स्वात्मजं सताम् । १५१,
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---नमस्कार स्वाध्याय (संस्कृत), पृ० १४
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