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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन में प्राप्त होती है, न परवर्ती योग-विषयक वाङ्मय में। केवल मन्त्रराजरहस्य' नामक पुस्तक में कुण्डलिनी की चर्चा मिलती है। योगशास्त्र एवं ज्ञानार्णव में ध्यान के अन्तर्गत अवश्य कुछ यौगिक क्रियाओं का वर्णन मिलता है, जिसका सम्बन्ध कुण्डलिनी से है। यद्यपि उन यौगिक क्रियाओं पर आगे विचार किया जायेगा, लेकिन यहां केवल इतना उल्लेख कर देना आवश्यक है कि कुण्डलिनी द्वारा योगी आत्मस्वरूप की प्राप्ति करता है। अर्थात् योगी कुण्डलिनी के नवचक्रों के आधार पर क्रमशः जप एवं मन्त्रों का चिन्तन करते-करते मन को एकाग्र करता है तथा आत्मदर्शन करने में समर्थ होता है। कुण्डलिनी के नवचक्र इस प्रकार हैं-१. गुदा के मध्यभाग में आधार चक्र, २. लिंगमूल के पास स्वाधिष्ठान चक्र, ३. नाभि के पास मणिपूर चक्र, ४. हृदय के पास अनाहत चक्र, ५. कण्ठ के पास विशुद्ध चक्र, ६. घण्टिका के पास ललना चक्र, ७. कपालस्थित आज्ञा चक्र, ८. मूर्ध्वास्थित ब्रह्मरन्ध्र चक्र एवं ९. उर्वभाग स्थित सुषुम्ना चक्र।
जैन योग-साधना शारीरिक कष्टों अर्थात् अनेक प्रकार के तपों पर भी जोर देती है, क्योंकि उनके द्वारा इन्द्रियों के विषयों को स्थिर किया जाता है। इन्द्रियों को स्थिर करने पर मन एकाग्र होकर अनेकविध धर्म-व्यापारों द्वारा चित्तशुद्धि, समताभाव आदि गुणों को प्राप्त करता है, जिनसे कि साधक क्रमशः आत्मोन्नति करता हुआ अपने सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करते हुए मोक्षसुख को प्राप्त करता है ।
१. वि० सं० १३३३ में रचित ।
- -जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भा० ४, पृ० ३१० २. गुदमध्य लिंगमूलेनाभी हृदि कण्ठ-घटिका भाले । मूर्धन्यूर्वे नवषट्क (चक्र) ठान्ता पंच भालेयुताः॥
-नमस्कार स्वाध्याय (संस्कृत), पृ० १२१
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