________________
: ४ :
(१) श्रावकाचार
जैन-दर्शनानुसार रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र को, जो कि मोक्ष के कारणभूत हैं, साधन-योग माना गया है । ' अतः योग के लिए चारित्र आधारस्तम्भ है, क्योंकि सम्यक्चारित्र की प्राप्ति होने पर ही साधक अथवा योगी अपनी अन्तर्बाह्य प्रवृत्तियों को संयमित करके अथवा भोग- कषायादि प्रवृत्तियों को नियन्त्रित करने पर आत्मस्वरूप का चिन्तन करने योग्य बनता है | चारित्र का सम्यक् पालक योगी ही वैराग्य तथा समता की ओर उन्मुख होकर आत्म चिन्तन में स्थिर होता है । इस प्रकार योग के लिए चारित्र एक अनिवार्य साधन है, जिससे आत्मिक विकास एवं मोक्ष की प्राप्ति होती है ।
योग के साधन : आचार
चारित्र में शुद्ध आचार-विचार का बड़ा महत्त्व है, क्योंकि आचार एवं विचार दोनों परस्परावलंबी हैं और दोनों के सम्यक् पालन से ही चारित्र का उत्कर्ष होता है । इसी को ध्यान में रखकर जैन योग में आचार-विचार के सम्यक् पालन का विधान है । बिना आचार-विचार की शुद्धि के चारित्र की प्राप्ति नहीं हो सकती और बिना चारित्र की सम्पन्नता के न योग सम्भव है तथा न मोक्ष की प्राप्ति हो ।
अतः चारित्र की दृढ़ता एवं सम्पन्नता के लिए जैन-दर्शन में विभिन्न व्रतों, क्रियाओं, विधियों, नियम-उपनियमों आदि का विधान है जिनमें तप, आसन, प्राणायाम, धारणा, प्रत्याहार, ध्यान आदि प्रमुख हैं । इस संदर्भ में निर्देश किया गया है कि ध्यानादि नियम उत्तरोत्तर चित्त की शुद्धि करते हैं, इसलिए ये सभी चारित्र ही हैं।
१. चतुर्वर्गेऽग्रणी मोक्षो, योगोस्तस्य च कारणम् ।
ज्ञान-श्रद्धान- चारित्ररूपं, रत्नत्रयं च सः ॥ - योगशास्त्र, ११५
२. चारित्रिणस्तु विज्ञेयः शुद्धयपेक्षो यथोत्तरम् ।
ध्यानादिरूपो नियमात् तथा तात्त्विक एव तु ॥ - योगबिन्दु, ३७१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org