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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन
जिनमें जैन योग के विस्तृत प्ररूपण के साथ-साथ अन्य परम्परासम्मत योग की भी चर्चा है और उन योगों के साथ जैन योग की समालोचना 'भी की गयी है । योगाधिकारियों के सम्बन्ध में बतलाया गया है कि चे दो प्रकार के होते हैं : (१) चरमावर्ती तथा (२) अचरमावर्ती । चरमावर्ती योगी ही मोक्ष के अधिकारी हैं । विभिन्न प्रकार के जीव के भेदों के अन्तर्गत अपुनर्बन्धक, सम्यग्दृष्टि अथवा भिन्न ग्रन्थि, देशविरति तथा सर्वविरति की चर्चा की गयी है । पूर्वसेवा के सन्दर्भ में योगाधिकार प्राप्ति के विविध अपेक्षित आचार-विचारों का वर्णन है । आध्यात्मिक विकास के क्रमशः अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षेप- इन पाँच भेदों का निर्देश है, जिनके सम्यक् पालन से कर्मक्षय होता है तथा मुक्ति प्राप्त होती है । प्रत्येक योगाधिकारी के अनुष्ठान की - कोटियों का वर्णन भी है, जिन्हें लेखक ने विष, गरल, सद्-असद् अनुष्ठान, तद्धेतु और अमृतानुष्ठान द्वारा निर्दिष्ट किया है ।
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(ऊ) षोडशक' - इस ग्रन्थ के कुछ ही प्रकरण योग विषयक हैं | - ग्रन्थ के चौदहवें प्रकरण में योग-साधना में बाधक खेद, उद्व ेग, क्षेप, उत्थान, भ्रान्ति, अन्यमुद्, रुग् और आसंग इन आठ चित्त दोषों का वर्णन किया गया है । सोलहवें प्रकरण में उक्त आठ दोषों के प्रतिपक्षी अद्वेष, जिज्ञासा, शुश्रूषा, श्रवण, बोध, मीमांसा, प्रतिपत्ति और प्रवृत्तिइन आठ चित्त-गुणों का निरूपण है । योगसाधना द्वारा क्रमशः स्वानुभूति - रूप परमानन्द की प्राप्ति का निरूपण है । इस ग्रन्थ पर योगदीपिका नाम की एक वृत्ति है जिसके लेखक यशोविजयगणि हैं । इस पर यशोभद्रसूरि का विवरण भी है ।
-आत्मानुशासन र
आचार्य गुणभद्र की संस्कृत श्लोकों की यह कृति योगाभ्यास की
१. यशोभद्रसूरि के विवरण सहित, ऋषभदेवजी केसरीमलजी जैन श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, वीर नि० सं० २४६२
२. आत्मानुशासन, टीकाकार एवं अंग्रेजी अनुवादक जे० एल० जैनी, सैक्रेड बुक्स ऑफ दि जैनाज ग्रन्थमाला, ई० सन् १९२८; पं० टोडरमल्ल रचित टीका के साथ, संपादक इन्द्रलाल शास्त्री, मल्लिसागर दि० जैन ग्रन्थमाला, जयपुर, वीर नि० सं० २४८२
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