________________
जैन योग - साहित्य
४३
"त्मिक विकास की भूमिकाओं का तीन प्रकार से वर्गीकरण किया गया है और उनमें अपनी कुछ नवीन विशेषताओं के साथ योगबिन्दु में वर्णित विषयों की पुनरावृत्ति भी की गयी है। योगबिन्दु में वर्णित पूर्वसेवा का वर्णन इसमें योगबीज रूप से हुआ है ।
यहाँ आध्यात्मिक विकास की भूमिकाओं का तीन प्रकार से वर्गीकरण किया गया है । प्रथम प्रकार जिसे योगदृष्टि कहते हैं, इसमें योग की प्रारम्भिक अवस्था से लेकर उसके अन्त तक की भूमिकाओं को क्रमशः दिखलाया गया है । वे आठ दृष्टियाँ इस प्रकार हैं- मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा । दूसरे प्रकार के वर्गीकरण के अन्तर्गत इच्छायोग, शास्त्रयोग एवं सामर्थ्ययोग का समावेश किया गया है । तृतीय वर्गीकरण के अन्तर्गत योगाधिकारी के रूप में गोत्रयोगी, कुलयोगी, प्रवृत्तचक्रयोगी और सिद्धयोगी का वर्णन है । प्रथम वर्गीकरण में निर्दिष्ट आठ योगदृष्टियों में ही १४ गुणस्थानों की योजना कर ली गयी है ।
इस ग्रन्थ पर स्वयं ग्रन्थकार ने एक स्वोपज्ञवृत्ति रची है, जो १९७५ श्लोकप्रमाण है । इस ग्रन्थ पर एक और वृत्ति की रचना हुई है जिसके लेखक सोमसुन्दरसूरि के शिष्य साधुराजगणि हैं । यह ग्रन्थ ४०५ श्लोकप्रमाण है । '
ध्यातव्य है कि उक्त आठ योगदृष्टियों ( मित्रा, तारा, बला आदि ) पर यशोविजयजी ने चार द्वात्रिंशिकाएँ भी लिखी हैं और गुजराती में यो दृष्टिनी सज्झाय नामक छोटी-सी पुस्तक लिखी है । इन दृष्टियों की समुचित विवेचना जैनदृष्टिए योग ( गुजराती भाषा ) तथा अध्यात्मतत्त्वालोक ( संस्कृत ) में क्रमश: मोतीचन्द कापड़िया और मुनि न्यायविजयजी ने की है ।
( उ ) योगबिन्दु - हरिभद्र के इस ग्रन्थ में ५२७ संस्कृत पद्य हैं,
१. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भा० ४, पृ० २३७
२. योगबिन्दु, हरिभद्रीय स्वोपज्ञटीका, सम्पादक, डा० एल० सुआलि, प्रकाशक - जैनधर्मं प्रसारक सभा, भावनगर, सन् १९११; जैन ग्रन्थ प्रसारक सभा, भावनगर, सन् १९४० ; बुद्धिसागर जैन ज्ञानमन्दिर, सुखसागर ग्रंथमाला, तृतीय प्रकाशन, सन् १९५०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org