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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन
तक साधक के आध्यात्मिक विकास के उपाय बर्णित हैं। गाथा ५९ से ८० तक बताया गया है कि चित्त को स्थिर करने के लिए साधक को किस तरह अपने रागादि दोष तथा परिणामों का चिन्तन करना चाहिए। इनमें शयन, आसन, आहार तथा योगों से प्राप्त लब्धियों का भी वर्णन है । इस तरह योग का स्वरूप, योगाधिकारी के लक्षण एवं ध्यानरूप योगावस्था का सामान्य वर्णन जैन- परम्परानुसार किया गया है ।
(आ) ब्रह्मसिद्धान्तसार - इस ग्रन्थ में ४२३ श्लोक हैं, जिनमें ब्रह्मादि सिद्धान्तों का वर्णन जैन योगानुसार किया गया है । इस ग्रन्थ में सर्व दर्शनों का समन्वयवाला अंश अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है ।
(इ) योगविशिका' - यह २० गाथाओं की छोटी-सी रचना है जिसमें अति संक्षिप्त रूप से योग की विकसित अवस्थाओं का निरूपण है, जिनमें कुछ नये पारिभाषिक शब्द हैं । हरिभद्र ने इस ग्रन्थ में आचारनिष्ठ एवं चारित्र सम्पन्न व्यक्ति को योग का अधिकारी माना है और मोक्ष के साथ सम्बन्ध जोड़नेवाले धर्मव्यापारों को योग कहा है। योग के इन पाँच भेदों का वर्णन भी है - स्थान, ऊर्ण, अर्थ, आलम्बन तथा अना - लम्बन । इस ग्रन्थ में चैत्यवन्दन की क्रिया का महत्त्व भी वर्णित है । इनके अतिरिक्त इच्छा, प्रवृत्ति, स्थिरता एवं सिद्धि इन चार यमों एवं प्रीति, भक्ति, वचन और असंग अनुष्ठानों का भी वर्णन है । इस पर यशोविजयजी की एक टीका भी है।
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(ई) योगदृष्टिसमुच्चय - इसमें २२७ संस्कृत पद्य हैं, जिनमें आध्या
१. (क) पं० सुखलालजी द्वारा सम्पादित यह ग्रन्थ श्री जैन आत्मानन्द महासभा, भावनगर से सन् १९२२ में प्रकाशित हो चुका है ।
(ख) ऋषभदेवजी केसरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम से सन् १९२७में प्रकाशित ।
(ग) प्रो० के० वी० अभ्यंकर द्वारा सम्पादित, सन् १९३२ पूना से प्रकाशित |
(घ) श्री बुद्धिसागरसूरि जैन ज्ञानमन्दिर, बीजापुर ( उत्तर गुजरात ) द्वारा वि० सं० १९९७ में प्रकाशित ।
२. यह कृति स्वोपज्ञवृत्ति के साथ देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था, सूरत से सन् १९११ में प्रकाशित हुई है । ताराचन्द मेहता द्वारा सम्पादित योगदृष्टिसमुच्चय सविवेचन बम्बई से सन् १९५० में प्रकाशित ।
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