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जैन योग - साहित्य
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जैन और डॉ० ए० एन० उपाध्ये के अनुसार इस ग्रन्थ का समय अनुमानतः ई० छठी शताब्दी है । परमात्मप्रकाश पर अनेक टीकाएँ रची गयी हैं, जिनमें ब्रह्मदेव, बालचन्द्र, पण्डित दौलतरामजी तथा मुनिभद्रस्वामी ( कानड़ी की टीका ) प्रमुख हैं । इस पुस्तक में मानसिक दोषों के परिहार के उपाय एवं त्रिविध आत्मा के सम्बन्ध में समुचित विवेचन किया गया है । इस ग्रन्थ में ३४५ दोहे हैं । परमात्मप्रकाश के कुछ दोहे आचार्य हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण में उद्धृत हैं । योगसार
यह भी योगीन्दुदेव की ही अपभ्रंश भाषा की छोटी-सी १०७ दोहों की रचना है । इन दोहों के माध्यम से आध्यात्मिक गूढ तत्त्वों का सुन्दर विश्लेषण हुआ है । इस ग्रन्थ पर इन्द्रनन्दी की टीका है। योगसार नाम के अन्य ग्रन्थ भी हैं, जिनका उल्लेख आगे आयेगा ।
हरिभद्र की योग विषयक रचनाएँ
आचार्य हरिभद्र का समय ई० सन् ७५७ से ८२७ तक है । योग सम्बन्धी उनकी छह रचनाएँ इस प्रकार हैं : (१) योगशतक, (२) ब्रह्मसिद्धान्तसार, (३) योगविंशिका, (४) योग दृष्टि समुच्चय, (५) योगबिन्दु और (६) षोडशक । इनमें से योगशतक और योगविशिका प्राकृत में हैं एवं शेष कृतियाँ संस्कृत में हैं । यहाँ संक्षेप में आचार्य हरिभद्र की रचनाओं का परिचय दिया जा रहा है ।
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(अ) योगशतक - १०१ प्राकृत गाथाओं के इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही निश्चय और व्यवहार योग का स्वरूप निरूपित है | गाथा ३८ से ५०
१. डा० हीरालाल जैन, भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ० ११८ २. परमात्मप्रकाश तथा योगसार, सम्पादक ए० एन० उपाध्ये, प्रकाशक परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बम्बई, १९३७, पृ० ११५
१. यह ग्रन्थ सन् १९६५ में स्वोपज्ञवृत्ति तथा ब्रह्मसिद्धान्तसमुच्चय के साथ लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद से प्रकाशित हुआ है । डा० इन्दुकला झवेरी द्वारा सम्पादित योगशतक हिन्दी अनुवाद के साथ गुजरात विद्यासभा, अहमदाबाद से सन् १९५९ में प्रकाशित हुआ है ।
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