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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन
है। इसमें योग के निरूपण के साथ-साथ साधक की उन भावनाओं का उल्लेख भी है, जिनके चिन्तन से वह अपनी चंचल वृत्तियों को तज कर अध्यात्ममार्ग में लीन होता है तथा बाह्य व्यवहारों का निरोध करके आत्मानुष्ठान में स्थिर होकर परमानन्द की प्राप्ति करता है। समाधिशतक'
पूज्यपाद का योग से सम्बन्धित यह दूसरा ग्रन्थ है। इसमें १०५ श्लोक हैं, जिनमें आत्मा की तीन अवस्थाओं ( बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा) का वर्णन है। ध्यान-साधना में अविद्या, अभ्यास एवं संस्कार के कारण अथवा मोहोत्पन्न राग-द्वेष द्वारा चित्त में विक्षेप उत्पत्र होने पर साधक को प्रयत्नपूर्वक मन को खींचकर आत्मतत्त्व में नियोजित करने का उपदेश दिया गया है । इस छोटे-से किन्तु महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ में ध्यान तथा समाधि द्वारा आत्मतत्त्व को पहचानने के उपायों का सुन्दर विवेचन है। विषय को दृष्टि से इसका कुन्दकुन्दकृत मोक्षपाहड से बहत-कुछ साम्य के अतिरिक्त उसकी अनेक गाथाओं का शब्दशः अथवा किंचित् भेद-सहित अनुवाद पाया जाता है। इस पर प्रभाचन्द्र, पर्वतधर्म तथा दशचन्द्र की टीकाएँ और मेघचन्द्र की एक वृत्ति भी मिलती है। परमात्मप्रकाश
इस अपभ्रंश ग्रन्थ के रचयिता योगीन्दुदेव हैं। डा. हीरालाल .
यह कृति सनातन जैन ग्रन्थमाला ने सन् १९०५ में; फतेहचन्द देहली ने वि० सं० १९७८ में तथा अंग्रेजी अनुवाद के साथ एम० एन० द्विवेदी ने अहमदाबाद से सन् १८९५ में प्रकाशित की है। मराठी अनुवाद के साथ इसकी द्वितीय आवृत्ति आर० एन० शाह ने शोलापुर से सन् १९४० में
प्रकाशित की है। २. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ० १२० ३. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ४, पृ० २५८ ४. परमात्मप्रकाश और योगसार, रायचन्द्र जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, ई० सन्
१९१५, संपादक डा० ए० एन० उपाध्ये, ई• सन् १९३७; दूसरा संस्करण, ई० स० १९६०
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