SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 245
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१४ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन ही देखती है, क्योंकि ध्यान में जहां ध्येय का आलम्बन होता है, वहां समाधि में ध्येय, ध्याता तथा ध्यान इस त्रिपुटी का अंश भी नहीं रहता । यह अवस्था आसक्तिहीन और दोषरहित होती है। इस अवस्था वाले यागी को सांसारिक वस्तुओं के प्रति न मोह होता है, न आसक्ति और न उसमें किसी प्रकार के दोष ही रह जाते हैं। वह मोक्ष की इच्छा भी नहीं करता है, क्योंकि इच्छा का होना परिग्रह हैं और इस दृष्टि से इच्छा कषाय-मूलक भी है। इस प्रकार अनाचार तथा अतिचार से वर्जित होने के कारण साधक योगी क्षपकश्रेणी' अथवा उपशमश्रेणी द्वारा आत्मविकास करता है। आठवें गणस्थान के द्वितीय चरण से योगी प्रगति करते हुए क्षपकश्रेणी द्वारा चार घातिया कर्मों को नष्ट करके पूर्ण कर्म-संन्यासयोग प्राप्त करता है और बिना किसी बाधा के केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है। __ इस प्रकार समस्त कषायों के क्षीण होने के कारण योगी को अनेक लब्धियाँ प्राप्त होती हैं और वह मुमुक्षु जीवों के कल्याणार्थ उपदेश देता है। इस क्रम में योगी निर्वाण पाने की स्थिति में योग-संन्यास नामक योग प्राप्त करता है, जिसके अन्तिम समय में शेष चार अघातियाकर्मो को नष्ट करके वह पांच अक्षरों के उच्चारण मात्र समय में शैलेशी अवस्था १. जो साधक तीव्र सवेग आदि प्रयत्नों द्वारा राग, द्वेष एवं मोह को क्रमशः निर्मूल करते करते उत्तरोत्तर समता की शुद्धि साधता है, वह क्षपक श्रेणी है। इस श्रेणी में साधक एक ही प्रयत्न में मुक्ति पा जाता है। २. जो साधक अपने संक्लेशों को अर्थात् कर्मों का मूलतः क्षय न करके उनका केवल उपशम ही करता है अर्थात् सर्वथा निर्मूल नहीं कर पाता वह उपशमश्रेणी है । कर्ममल शेष रहने से मोक्ष की प्राप्ति उसी जन्म में नहीं होती, बल्कि उसे जन्मान्तर लेना पड़ता है। ३. निराचारपदोह्यस्यामतिचारविजितः ।। आरूढारोहणा भाव गति वत्त्वस्य चेष्टितम् । -योगदृष्टिसमुक्चय, १७७ ४. द्वितीयाऽपूर्वकरणे मुख्योऽयमुपजायते । केवल श्रीस्ततश्चास्य निःसपत्ना सदोदया। -वही, १८० ५. क्षीणदोषोऽथ सर्वज्ञः सर्वलब्धिफलान्वितः। परं परार्थं संपाद्य ततो योगान्तमश्नुते । . -योगदृष्टिसमुच्चय, १८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy