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________________ ' १०४ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन (२) देय वस्तु को सचित्त पदार्थो के ऊपर रख देना, (३) भिक्षा का समय बीत जाने पर भोजन बनाना, (४) ईर्ष्या से प्रेरित होकर दान देना और (५) परायी वस्तु कहकर दान देना । प्रतिमाएँ प्रतिमा का अर्थ है प्रतिज्ञाविशेष, व्रतविशेष, तपविशेष अथवा अभिग्रहविशेष ।' श्रावक जब श्रमण के सदृश ही जीवन व्यतीत करना चाहता है, तब इन प्रतिमाओं का आश्रय लेता है, क्योंकि गुण-स्थानों की तरह इन प्रतिमाओं के द्वारा क्रमिक आत्मविकास होता है। इस दृष्टि से प्रतिमाएं आत्मविकास की क्रमिक सोपान हैं, जिसके डण्डों पर चढ़ते हुए श्रावक अपनी शक्ति के अनुसार मुनि की दीक्षा ग्रहण करने की भूमिका पर पहुंचता है। प्रतिमाओं की संख्या, क्रम एवं नामों के सम्बन्ध में दिगम्बर एवं श्वेताम्बर परम्परा में किंचित् अन्तर दिखाई पड़ता है, लेकिन यह अन्तर नगण्य है। श्वेताम्बर परम्परा के दशाश्रुतस्कन्ध एवं समवायांग' आगमों में क्रमशः दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, नियम, ब्रह्मचर्य, सचित्तत्याग, आरम्भत्याग, प्रेष्यपरित्याग, उद्दिष्टत्याग एवं श्रमणभूत इन ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन है। आचार्य हरिभद्र ने 'नियम' के स्थान पर 'पडिमा' का उल्लेख किया है। दिगम्बर परम्परा के वसुनन्दिश्रावकाचार", सागारधर्मामृत आदि ग्रन्थों में दर्शन, ब्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्तत्याग, रात्रिभुक्तित्याग, ब्रह्मचर्य, आरम्भत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग एवं उद्दिष्टत्याग इन ग्यारह प्रतिमाओं का १. जैन आचार, पृ० १२५ २. दशाश्रुतस्कन्ध, ६-७ ३. समवायांग, ११ ४. दसणवय सामाइय पोसह पडिमा अवंभ सच्चित्ते । ___आरंभ पेस उदिवज्जए समणभूए य ।। -विशंतिविंशिका, १११ ५. वसुनन्दिश्रावकाचार, २०१-३०१ ६. सागारधर्मामृत, ३।२-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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