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________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययनः प्रथम अधिकारी ( चारित्री ) में मिथ्याज्ञान के रहने से दर्शन प्रकट नहीं होता, क्योंकि दर्शनमोहनीय कर्म अस्तित्व में रहता है । द्वितीय अधिकारी में मोहनीय कर्म का क्षय होता है, परन्तु वीतरागता की प्राप्ति नहीं होती। तीसरे अधिकारी में कर्म अल्पांश में नष्ट होते हैं, किन्तु पूर्णत: नहीं । और चौथे में जाते-जाते पूरे कर्म ढीले पड़ जाते हैं तथा पूर्ण चारित्र का उदय हो जाता है । " ८६ इस प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र आत्मविकास की क्रमिक सीढ़ियाँ हैं, मोक्ष मार्ग के साधन हैं; क्योंकि इनके द्वारा क्रमक्रम से आत्मविकास होता है, कषाय एवं कर्म क्षीण होते जाते हैं और स्वानुभूति की परिधि का विस्तार होता जाता है तथा एक ऐसी अवस्था आती है जब साधक मोक्ष का अधिकारी बन जाता है । चारित्र के दो भेद पूर्वं वर्णित चारित्र के दो भेद - सकलचारित्र एवं विकलचारित्र, क्रमशः श्रमण एवं श्रावक के होते हैं; क्योंकि मुनि जहाँ बाह्य एवं आभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रहों का त्यागी होता है वहाँ श्रावक वैसा न होकर कुछ परिग्रहों का त्यागी होता है । मुनि विरक्त एवं गृहत्यागी होने के कारण ऐसा करने में सक्षम हो सकते हैं, लेकिन श्रावक के लिए सर्वसंग परित्यागी बनना अशक्य है । उसे जीविकोपार्जन के लिए विविध उद्योग-व्यवसाय आदि का अवलम्बन लेना पड़ता है । इस प्रकार मोटे तौर पर जैनशास्त्र में दो प्रकार की आचार संहिताओं का विधान है, जिनका वर्णन क्रमशः यहाँ किया जाता है । • श्रावकाचार श्रावक देशसंयमी होता है । उसके आचार में मर्यादापूर्वक आत्मविकास की छूट है । यही कारण है कि आरम्भ समारम्भपूर्ण श्रावकधर्म में सदाचार एवं सद्विचार की प्रतिष्ठा द्वारा निर्वाण, वीतरागता की प्राप्ति का विधान है | श्रावकाचार श्रमणाचार का पूरक अथवा उस दिशा में सहायक होता है । १. योगशतक, पृ० २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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