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योग के साधन : आचार
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५. यथाख्यातचारित्र-आत्मा में स्थित लोभादि कषायों का भी अभाव हो जाना यथाख्यातचारित्र है । यह अवस्था सिद्धपद के पूर्व चारित्र - विकास की पूर्णता की सूचक है ।
इस संदर्भ में योगाधिकारी की दृष्टि से भी चारित्र के चार भेद वर्णित 'हैं और चारित्र अर्थात् चारित्रशील के क्रमशः चार लक्षणों का प्रतिपादन किया गया है । वे चार लक्षण इस प्रकार हैं – (१) अपुनर्बन्धक, (२) सम्यग्दृष्टि, (३) देशविरति तथा (४) सर्वविरति ।
१. अपुनर्बन्धक – जो उत्कट क्लेशपूर्वक पाप कर्म न करे, जो भयानक दुःखपूर्ण संसार में लिप्त न रहे और कौटुम्बिक, लौकिक एवं धार्मिक आदि सब बातों में न्याययुक्त मर्यादा का अनुपालन करे, वह अपुनबन्धक है ।
२. सम्यग्दृष्टि - धर्म-श्रवण की इच्छा, धर्म में रुचि, समाधान या स्वस्थता बनी रहे, इस तरह गुरु एवं देव की नियमित परिचर्या ये सब सम्यग्दृष्टि जीव के लिंग हैं ।
३. देशविरति - मार्गानुसारी, श्रद्धालु, धर्म-उपदेश के योग्य, क्रियातत्पर, गुणानुरागी और शक्य बातों में ही प्रयत्न करनेवाला देशविरति चारित्री होता है ।
४. सर्वविरति - अन्तिम वीतरागदशा प्राप्त होने तक सामायिक यानी शुद्धि के तारतम्य के अनुसार तथा शास्त्रज्ञान को जीवन में उतारने की परिणति के तारतम्य के अनुसार सर्वविरति चारित्रो होता है ।
१. पावं न तिव्वभावा कुणइ न बहु मन्नई भवं घोरं । उचिट्ठिइं च सेवइ सव्वत्थ वि अपुणबंधो त्ति ॥ १३ ॥ सुस्सूस धम्मराओ गुरुदेवाणं जहासमाहीए । वेयावच्चे नियमो सम्मद्दिठिस्स लिगाई || १४ || मग्गणुसारी सद्धो पन्नवणिज्जो कियावरो चेव । गुणरागी सक्कारंभसंगओ तह य चारिती ॥१५॥ एसो सामाइयसुद्धिभेयओऽणेगहा मुणेयव्वो । आणापरिणइमेया अंते
२. योगबिन्दु, ३५२-५३
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जा वीयरागोत्ति ॥१६॥ - योगशतक
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