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________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन श्रमण एवं गृहस्थ की दृष्टि से चारित्र दो प्रकार का है' - ( १ ) सकलचारित्र और (२) विकलचारित्र । बाह्य तथा आभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रहों के त्यागपूर्वक श्रमण द्वारा गृहीत चारित्र सर्वसंयमी अर्थात् सकलचारित्र है । गृहस्थों या श्रावकों द्वारा गृहीत चारित्र देशसंयत अर्थात् विकलचारित्र है । उक्त दोनों प्रकार के चारित्र को क्रमशः सर्वदेश तथा एकदेश " कहा गया है । चारित्र के पाँच भेदों का भी वर्णन किया गया है - ( १ ) सामायिक, (२) छेदोपस्थापना, (३) परिहारविशुद्धि, (४) सूक्ष्म संपराय तथा ( ५ ) यथाख्यात | २ ८४ १. सामायिक चारित्र - जिसका राग-द्वेष परिणाम शान्त है अर्थात् समचित्त है, उसे सामायिकचारित्र कहते हैं । इस चारित्र की प्राप्ति के बाद मन में किसी प्रकार की ईर्ष्या, मोह आदि नहीं रह पाते । २. छेदोपस्थापनाचारित्र - पहली दीक्षा ग्रहण करने के बाद विशिष्ट श्रुत का अभ्यास कर चुकने पर विशेष शुद्धि के लिए जीवन भर के लिए जो पुनः दीक्षा ली जाती है और प्रथम ली हुई दीक्षा में दोषापत्ति आने से उसका उच्छेद करके पुनः नये सिरे से जो दीक्षा का आरोपण किया जाता है उसे छेदोपस्थापना - चारित्र कहते हैं । ३. सूक्ष्मसंपरायचारित्र - जहाँ सूक्ष्म कषाय विद्यमान हो अर्थात् किंचित् लोभ आदि हों, वह सूक्ष्मसंपरायचारित्र है । ४. परिहारविशुद्धिचारित्र - कर्म - मलों को दूर करने के लिए विशिष्ट. तप का अवलम्बन लेने को अर्थात् आत्मा की शुद्धि करने को परिहारविशुद्धिचारित्र कहते हैं । १. सकलं विकलं चरणं तत्सकलं सर्वसंग - विरतानाम् । अनगाराणां विकलं सागाराणां ससंगानाम् ॥ ? Jain Education International २. छहढाला, ४ १० ३. सामाइयत्थ पढमं, छेओवट्ठावणं भवे बीयं । परिहारविसुद्धीयं, सुहुमं तह संपरायं च ॥ अकसायं अहक्खायं, छउमत्थस्स जिणस्स वा । एयं चयरितकरं चारितं होइ आहियं ॥ - उत्तराध्ययन, २८ ३२-३३ - समीचीन धर्मशास्त्र, ३२४|५० " For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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