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'योग के साधन : आचार पदार्थो के साथ एकीभूत कैसे हो सकता है ? विषय-भेद के कारण इसके चार भेद हैं, जिनका वर्णन यहाँ आवश्यक नहीं है।
सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान का होना असंभव है। सम्यग्ज्ञान के तीन दोष-संशय, विपर्यय तथा अनध्यवसाय स्व तथा पर पदार्थों के अन्तर को जानने के मार्ग में बाधक हैं। अतः इन तीनों दोषों को दूर करके आत्मस्वरूप को जानना चाहिए।' आत्मस्वरूप का जानना ही निश्चयदृष्टि से सम्यग्ज्ञान है । सम्यकचारित्र
सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान होने के बाद चारित्र सम्यक्चारित्र हो जाता है। क्योंकि दृष्टि में परिवर्तन आ जाता है, दृष्टि परिशद्ध, यथार्थ बन जाती है। राग-द्वेषादि कषाय-परिणामों के परिमार्जन के लिए अहिंसा, सत्यादि व्रतों का पालन करने के लिए सम्यक्चारित्र का विधान है।" ज्ञानसहित चारित्र ही निर्जरा तथा मोक्ष का हेतु है। दूसरे शब्दों में अज्ञानपूर्वक चारित्र का ग्रहण सम्यक् नहीं होता, इसलिए चारित्र का आराधन सम्यग्ज्ञानपूर्वक ही सम्यक कहा गया है।
१. प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग ।
-समीचीन धर्मशास्त्र, २, ४३-४६ २. . सम्यग्ज्ञानं कार्य सम्यक्त्वं कारणं वदन्ति जिनाः ।
ज्ञानाराधनमिष्टं, सम्यक्त्वानन्तरं तस्मात् ।। कारणकार्यविधानं समकालं जायनोरपि हि । दीपप्रकाशयोरिव, सम्यक्त्वज्ञानयोः सुघटम् ।।
-पुरुषार्थसिद्धयुपाय, ३३-३४ ३. तातै जिनवरक थित तत्त्वअभ्यास करीजे ।
संशय विभ्रम मोह त्याग, आपो लख लीजे ॥ --छहढाला, ४।६ ४. आपरूप को जानपनौ सो सम्यग्ज्ञान कला है। ---छहढाला, ३३२ ५. मोहतिमिराऽपहरणे, दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञानः ।। रागद्वेष निवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः ।।
-समीचीन धर्मशास्त्र, ३१२११४७ ६. नहि सम्यग्व्यपदेशं चारित्रमज्ञानपूर्वकं लभते । ज्ञानान्तरमुक्त, चारित्राराधनं तस्मात् ॥
-पुरुषार्थसिद्धयुपाय, ३८
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