________________
८२
जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन आदेश है। वे दोष इस प्रकार हैं-तीन मूढ़ताएँ, आठ मद, छह अनायतन और आठ शंका आदि । तोन मूढ़ताएँ-१. देवमूढ़ता, २. गुरुमूढ़ता एवं ३. लोक मूढ़ता।
आउ मद-(१) ज्ञान, (२) अधिकार, (३) कुल, (४) जाति, (५) बल, (६) ऐश्वर्य, (७) तप और (८) रूप ।
छह अनायतन-(१) कुदेव, (२) कुदेवमन्दिर, (३) कुशास्त्र, (४) कुशास्त्र के धारक, (५) कुतप एवं (६) कुतप के धारक।
आठ शंका आदि (सम्यक्त्व के आठ अंगों से विपरीत)-(१) शंका, (२) कांक्षा, (३) विचिकित्सा, (४) अन्यदृष्टि प्रशंसा, (५) निन्दा, (६) अस्थितीकरण, (७) अवात्सल्य और (८) अप्रभावना। इन्हीं दोषों में सम्यक्त्व के पाँच अतिचारों का अन्तर्भाव है। सम्यग्ज्ञान ___ सम्यग्दर्शनपूर्वक ही सम्यग्ज्ञान होता है। सम्यग्दर्शन के लिए जिन तत्त्वों पर श्रद्धान अथवा विश्वास अपेक्षित है, उनको विधिवत् जानने का प्रयत्न करना ही सम्यग्ज्ञान का लक्ष्य है। अर्थात् अनेक धर्मयक्त स्व तथा पर-पदार्थो को यथावत् जानना ही सम्यग्ज्ञान है।
वस्तुतः जीव मिथ्याज्ञान के कारण चेतन-अचेतन वस्तुओं को एकरूप समझता है, परन्तु चेतनस्वभावी जीव या आत्मा अचेतन या जड़
१. मूढत्रयं मदाश्चाष्टौ तथाऽनायतानि षड् । ___ अष्टौ शंकादयश्चेति दृग्दोषाः पंचविंशति ।।
-उपासकाध्ययन, २११२४१ २. योगशास्त्र में सम्यक्त्व के पाँच दोष क्रमशः शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मिथ्याष्टिप्रशंसा तथा मिथ्यादृष्टिसंस्तव बताये गये हैं।
शंकाकाङ्क्षाविचिकित्सा-मिथ्यादृष्टिप्रशंसनम् । तत्संस्तवश्च पंचापि, सम्यक्त्वं दूषयन्त्यलम् ।
-योगशास्त्र, २०१७ ३. नाणेणं जाणई भावे। -उत्तराध्ययन, २८।३५ ४. स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् । --प्रमेयरत्नमाला, १
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org