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योग के साधन ! आचार
श्रावक के लिए देशसंयमी, गृहस्थ, श्राद्ध, उपासक, अणुव्रतो, देशविरत, सागार, आगारी आदि शब्दों के भी प्रयोग होते हैं।'
श्रावक के विभिन्न दृष्टियों से कई भेद-प्रभेद किये गये हैं। सागारधर्मामृत के अनुसार श्रावक तीन प्रकार के हैं-१. पाक्षिक, २. नैष्ठिक,
और ३. साधक । निर्ग्रन्थ धर्म में श्रद्धा रखनेवाला पाक्षिक, श्रावकधर्म का पालन करनेवाला नैष्ठिक तथा आत्मध्यान में लीन होकर संलेखना लेनेवाला साधक है। ग्यारह प्रतिमाओं के आधार पर भी श्रावक तीन प्रकार के कहे गये हैं 3 - १. जघन्य, २. मध्यम तथा ३. उत्कृष्ट । चामुण्डराय ने गृहस्थ को ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास इन चार आश्रमों में विभाजित किया है। इसमें वैदिक परम्परा का अनुकरण स्पष्ट दीख पड़ता है। हरिभद्र ने सामान्य और विशेष दो प्रकार के श्रावक बताये हैं।५ श्रावक के भेद-विभेद में न जाकर यहाँ केवल श्रावकाचार का प्रतिपादन करना ही अभीष्ट है।
श्रावक-धर्म अथवा श्रावकाचार का प्ररूपण मुख्यतः तीन प्रकार से किया गया है.---(१) बारह व्रतों के आधार पर, (२) ग्यारह प्रतिमाओं के आधार पर तथा (३) पक्ष, चर्या अथवा निष्ठा एवं साधन के आधार पर। उपासकदशांग, तत्त्वार्थसूत्र, रत्नकरण्ड-श्रावकाचार आदि में संलेखनासहित बारह व्रतों के आधार पर श्रावक-धर्म का प्रतिपादन है। आचार्य कुन्दकुन्द ने चारित्र-प्राभृत में, स्वामि कार्तिकेय ने द्वादश अनुप्रेक्षा में एवं आचार्य वसूनन्दि ने वसनन्दि-श्रावकाचार में ग्यारह प्रतिमाओं के आधार पर श्रावक-धर्म का प्ररूपण किया है। श्रावक के बारह व्रत
१. जैन आचार, पृ० ८३ २. पाक्षिकादिभिदा त्रेधा, श्रावकस्तत्र पाक्षिकः ।
तद्धर्मगृह्यस्तनिष्ठो, नैष्ठिकः साधकः स्वयुक् ।-सागारधर्मामृत, १२० ३. वही, ३३२-३ ४. चारित्रसार, पृ० २० ५. तत्र च गृहस्थधर्मोऽपि द्विविधः --सामान्यतो विशेषतश्चेति ।
-धर्मबिन्दु, ११२ ६. जैन आचार, पृ० ८३-८४
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